Menu
blogid : 12215 postid : 5

शत्रु नहीं हमारे मित्र हैं ‘शनि’

SHABDARCHAN
SHABDARCHAN
  • 39 Posts
  • 30 Comments

शनि जयंती 8 जून पर विशेष

शत्रु नहीं हमारे मित्र हैं शनि

समस्त ग्रहों के अधिपति सूर्य के पुत्र शनि अपने बारे में प्रचारित कथाओं-किस्सों और किवदंतियों के चलते सदैव रहस्यमय बने रहे हैं।उनके कोप और दंड आदि से जुड़े बहुत से मत शनि के विकराल स्वरुप और उनकी दशा तथा साढ़ेसाती आदि के बारे में अनेकानेक चर्चाएँ लोगों को शनि से भयभीत रखती हैं।ज्योतिषीय दृष्टिकोण से भी शनि को एक अत्यंत क्रूर ग्रह के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है।वास्तविक सन्दर्भों में देखें तो शनि समस्त प्राणी मात्र के लिए कोई शत्रु नहीं अपितु एक सखा हैं।व्यक्ति के जीवन को परिष्कृत करके उसे ऊंचाई तक पहुँचाने में शनि का कोई सानी नहीं !हमारे जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं में शनि ग्रह की निर्णायक भूमिका रहती है।हिन्दू धर्म के मान्य चार प्रमुख पुरुषार्थों में से एक ‘मोक्ष‘ को प्रदान करने वाले, ये अकेले और पहले ग्रह हैं।किसी भी मनुष्य को सम्पूर्णता तभी प्राप्त हो सकती है, जब वह मानवीय गुणों को अपने जीवन में आत्मसात करे ,शनि इसमें सर्वाधिक सहायक देव की भूमिका निभाते हैं और जो व्यक्ति इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे यथायोग्य दंड भी देते हैं।हमें नहीं भूलना चाहिए की शनि ग्रह मंडल में न्यायाधीश भी हैं।


ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि की उत्पत्ति के उल्लेख मिलते हैं।इस दिवस को शनि सम्बन्धी पूजा अर्चना और उपायों के लिए एक स्वयं सिद्ध मुहूर्त की संज्ञा दी गई है। ‘स्कन्द पुराण’ के ‘काशीखण्ड’ में एक वृतांत आता है कि सूर्य की दूसरी पत्नी छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ।कथा है कि शनि के श्याम वर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया कि शनि उनका पुत्र नहीं है।जब शनि को इस बात का पता चला तो वह अपने पिता से क्रुद्ध हो गया।इसी के चलते शनि -सूर्य में बैर की बात कही जाती है।शनि ने अपनी साधना और तपस्या द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य देव के समतुल्य शक्तियाँ अर्जित कीं।शिवजी ने शनि को वरदान माँगने को कहा तब शनि ने प्रार्थना की –‘युगों-युगों से मेरी माता छाया पराजित होती रही है ,इसे मेरे पिता सूर्य द्वारा बहुत अपमानित और प्रताड़ित किया गया है ;अतः माता की इच्छा है उनका पुत्र शनि अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी अधिक शक्तिशाली बने।’ तब भगवान शिव ने वरदान देते हुए कहा– ‘नवग्रहों में तुम्हारा स्थान सर्वश्रेष्ठ रहेगा।मानव तो क्या देवता भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे !’

वैज्ञानिक मंतव्य से देखें तो सूर्य सभी ग्रहों के पिता हैं।उन्ही से अलग होकर विभिन्न ग्रह अपने अस्तित्व को उपलब्ध हुए।सूर्य किसी की परिक्रमा नहीं करते ;जबकि सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।आकाश गंगा में नवग्रहों की कक्षा में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी 88 करोड़, 61 लाख मील की दूरी पर है;जबकि पृथ्वी से शनि ग्रह की दूरी 71 करोड़, 31 लाख, 43 हज़ार मील है।शनि का व्यास 75 हज़ार,100मील है। शनि 6 मील प्रति सेकेण्ड की गति से 21.5 वर्ष में अपनी कक्षा में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है।शनि ग्रह का तापमान 240 फ़ॉरनहाईट है।शनि के इर्द-गिर्द सात वलय हैं।शनि के अपने 15 चन्द्रमा हैं ,जिनमें से प्रत्येक का व्यास पृथ्वी से काफी विस्तृत है।

ज्योतिष शास्त्र की प्रमुख शाखा –‘फलित ज्योतिष‘ में शनि को अनेक नामों से संबोधित किया गया है,जैसे सूर्यपुत्र ,मंदगामी, कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, सौरि, कृष्ण, रोद्रान्तको, पिप्पलाश्र्य और शनिश्चर इत्यादि।शास्त्रीय मान्यता के अनुसार शनि की माता छाया देवी हैं , भाई यमराज,बहन यमुना ,गुरु भगवान शिव ,तथा गौत्र कश्यपहै।गंभीर ,त्यागी ,तपस्वी ,हठी और क्रोधी शनि के स्वभाव हैं।अध्यात्म,कानून ,कूटनीति ,राजनीति शनि के रुचिगत विषय हैं।कुम्भ और मकर शनि की प्रिय राशियाँ हैं।कालभैरव ,हनुमान जी ,बुध और राहु शनि के प्रिय सखा हैं।शनि रात्रि प्रहर के अधिपति हैं।शनि के नक्षत्र हैं-अनुराधा ,पुष्य और उत्तरा भाद्रपद।शनि का प्रिय रत्न नीलम और काली वस्तुवें, यथा -काला वस्त्र सरसों का तेल ,गुड ,साबुत उड़द ,खट्टा कसैला पदार्थ प्रिय वस्तुवें हैं।लोहा और इस्पात उनकी प्रिय धातुवें हैं। सीमेंट, लोहे के कारखाने, इस्पात उद्योग, कल कारखाने, पेट्रोलियम पदार्थ, ट्रांसपोर्ट, मेडिकल , प्रेस और हार्डवेयर आदि शनि से जुड़े कारोबार हैं।वातरोग, कैंसर, शुगर, किडनी, कुष्ठ रोग, असाध्य रोग, कम्पन, दन्त विकार, विभिन्न प्रकार के दर्द ,पागलपन, ब्लड कैंसर और त्वचा संबंधी रोगों के प्रदाता शनि ही हैं।तुला राशि में 20 अंश पर शनि अपनी उच्च अवस्था में होते हैं, जबकि मेषराशि में 20 अंश पर शनि परम नीच कहलाते हैं।शनि की तीसरी ,सातवीं और दसवी दृष्टि मानी जाती है।शनि की हाथी, घोड़ा, हिरण, कुत्ता, गिद्ध, भैंसा और गधा सात सवारियां हैं। किसी भी व्यक्ति के जीवन में शनि की महादशा 19 वर्षों के लिए होती है।


समग्र अर्थों में शनि हमारे शत्रु नहीं अपितु परम मित्र हैं।वें हमें जीवन की अतिशयता से रोकते हैं।प्रत्येक अवस्था में एक संतुलन और होश को बांधे रखने में शनि हमारे सहायक हैं।शनि प्रकृति में भी संतुलन बनाये रखते हैं।प्रत्येक प्राणी के साथ वे न्याय करते हैं।जो व्यक्ति अनुचित और विषम मूल्यों को अपना लेते हैं।अस्वाभाविक समता में जिनका मन रमता है उनके लिए शनि दंडदाता हैं ,यथा –

वैदूर्य कांति रमल:,प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।

अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥

जो लोग अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करते हैं, जो बात समाज के हित में नही होती है और उसको मान्यता देने की कोशिश करते हैं ,अहम के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखते हैं,अनुचित विषमता,अथवा अस्वभाविक समता को आश्रय देते हैं,शनि उनको ही पीडित करता है। शनि हमसे कुपित न हो,उससे पहले ही हमे समझ लेना चाहिये,कि हम कहीं अन्याय तो नही कर रहे हैं ?या अनावश्यक विषमता का साथ तो नही दे रहे हैं। यह तपकारक ग्रह है,अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है,शनि का रंग गहरा नीला होता है,शनि ग्रह से निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं। शरीर में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है। शनि दुखदायक,शूद्र वर्ण,तामस प्रकृति,वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्यहीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है।शनि सीमा ग्रह कहलाता है,क्योंकि जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है,वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है।जगत में सच्चे और झूठे का भेद समझना,शनि का विशेष गुण है।यह ग्रह कष्टकारक तथा दुर्दैव लाने वाला है.विपत्ति,कष्ट,निर्धनता,देने के साथ–साथ बहुत बडा गुरु तथा शिक्षक भी है

हमें शनि को समझने के लिए अपने जीवन में आने वाले परिवर्तनों को समझना होगा।जब भी हम शक्ति और सत्ता अथवा धन के मद में स्वयं को श्रेष्ठ और औरों को तुच्छ समझने लगते हैं तभी हमारे पराभव का समय प्रारंभ हो जाता है।कहते है की सदा किसी का भी समय एक जैसा नहीं रहता।यही प्रकृति के न्याय चक्र की प्रतिछाया है।ऐसे ही समय में हमें अच्छे और बुरे का ज्ञान होता है।दूसरे शब्दों में कहें तो शनि के कारण जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव हमें और भी अधिक और भी सक्षम व्यक्तित्व के रूप में उभारते हैं।हममें निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है फलस्वरूप हम सफलता और समृद्धि के शिखरों की तरफ गतिमान होते हैं।सिर्फ पौराणिक प्रसंग ही नहीं भारतीय जीवन दर्शन का अभिन्न अंग माने जाने वाले वेदों में ”अथ शांति प्रकरणं ” के जितने भी मंत्र हैं वे सब की सब शनिदेव की ही स्तुतियाँ हैं।जीवन में यदि शांति और संतोष नहीं तो कुछ भी आप हो जाएँ जीवन नीरस और उदासी के एक नाद से अधिक कुछ भी नहीं ,इसी बात को ध्यान में रखते हुए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘संस्कार विधि‘ में जिन 28 मन्त्रों को चुना है वे सब शनि की वैदिक स्तुतियाँ ही हैं। ‘यजुर्वेद‘ के 16 वें अध्याय में 12 वें नंबर पर आने वाला मंत्र शनि की सर्वोच्च वैदिक स्तुति है ,यथा-

ओउम शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

शनि जिस अवस्था में होगा, उसके अनुरूप फल प्रदान करेगा। जैसे प्रचंड अग्नि सोने को तपाकर कुंदन बना देती है, वैसे ही शनि भी विभिन्न परिस्थितियों के ताप में तपाकर मनुष्य को उन्नति पथ पर बढ़ने की सामर्थ्य एवं लक्ष्य प्राप्ति के साधन उपलब्ध कराता है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply