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कुदरत का कहर

SHABDARCHAN
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देवभूमि उत्तराखंड के खंड-खंड होने से देश और दुनिया के संवेदनशील लोग दुखद विस्मय में हैं।कुदरती कहर के आगे समूची मानवीय व्यवस्था पंगु और बेबस दिख रही है।घटना के चार रोज़ बाद भी हज़ारों हज़ार लोग भगवान से अपनी सलामती की दुआ मांग रहे हैं।जो लोग इस जलप्रलय में जीवन यात्रा से मुक्त हुए उनके पीछे कुदरती आफत का हाथ सभी की ज़ुबान पर है,यहाँ मैं एक लाइन जोड़ना चाहता हूँ ,जो लोग बचे और बचाए जा रहे हैं उनकी हिफाज़त में भी सबसे बड़ा रोल कुदरत के सहयोग का ही है।चंद घंटे की बारिश का नतीजा हम देख रहे हैं ;यदि वह नहीं रूकती, तो आज हम दुनिया की सबसे भयावह खबर होते! अफ़सोस है कि दो तीन दिन बाद भी जो ख़बरें हम तक अपडेट होंगी, वे भी काफी हृदयविदारक हो सकती हैं।मौत की फिगर सरकारी आकंड़ों से कहीं इतर है।

मित्रों यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या इस तरह के हादसे की वजह सिर्फ़ कुदरती कहर है ? प्रथम दृष्टया इसका जवाब हाँ में आ सकता है! लेकिन मैं ये कहना चाहता हूँ कि कुदरती कहर के इस असर को काफी हद तक कम किया जा सकता है ,यदि हमारी मानवीय हसरतों और स्वार्थों पर लगाम लगायी जा सके।प्रक्रति के साथ किये गए बेतरतीब मजाक ने आज काफी हद तक ऐसी घटनाओं को खौफनाक और भयावह बना दिया है।सभी रसूखदार और ताक़तवर लोगों को हिमालय की वादियों में ही होटल और ऐशगाह बनानी हैं।झील और नदियों के तट पर ही पाँच सितारा रिसॉर्ट्स कमाई का अच्छा साधन हैं।बहुत से नेताओं का ये स्टेटस सिम्बल भी है।सभी पार्टियों के धनवान सत्ताधीश पर्वतीय कंदराओं को ‘चैन’ और ‘सुकून’ की एक आदर्श जगह मानते हैं। ‘पर्वतारोहण’ रोमाचं की एक वजह हो सकता है लेकिन ‘पर्वतादोहन’ सिर्फ और सिर्फ मौत के ग्राफ को बढ़ा रहा है।

यह एक सर्वमान्य सत्य है कि इस तरह की प्राकृतिक विनाशलीला को दुनिया भर में कोई भी नहीं रोक सकता है।विकसित देशों में भी जब तब ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं।लेकिन दुनिया के अधिकांश विकसित राष्ट्र आदमियत को सिर्फ भगवान के भरोसे ज़िंदा छोड़ने के खिलाफ़ हैं।वहाँ की मान्यता है कि कल किसी के जेहन में यह सवाल नहीं आना चाहिए कि  इन लोगों को बचाया जा सकता था ? प्यास लगने पर कुवाँ खोदने वाली मानसिकता और व्यवस्था वाले हमारे देश में इस तरह की घटनाओं पर तब ज़्यादा क्षोभ होता है,जब लगता है कि शायद इससे बचा जा सकता था या कम से कम इसकी भयावहता को तो कम किया ही जा सकता था ?

देश के प्रधानमंत्री हवाई जहाज़ में एक नक्शा लेकर हजारों मीटर ऊपर से यह अनुमान लगाते दिखाई देते हैं -‘ओह ! ये उत्तराखंड है, अच्छा यहाँ केदारनाथ मंदिर है ?बड़ा बुरा हुआ’  खबर बन जाती है, देश के मुखिया को आपकी चिंता है ,सरकारी टी वी से प्रसारण करके इस प्रचार को और पुख्तगी मिल जाती है।लेकिन जो खुद खबर बन गए उनके परिजनों को इन हादसों की स्मृतियों से उबरने में सदियाँ लग जाएँगी।जो बच्चे बचकर बाहर आ गए हैं, वे कभी भी अपने मम्मी-पापा से पहाड़ों पर घूमने की बात नहीं कहेंगे। लाशों के बीच से पत्ते बीनकर खाने के बाद बचे लोग एक अदृश्य मानवीय मानसिक बीमारी से ग्रस्त रहेंगे।ज़िन्दगी भर सोयेंगे तो मौत का मातम होगा और रोयेंगे तो आंसू साथ नहीं देंगे।क्या ये भी याद दिलाना पड़ेगा की इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं की बाबत नीति निर्धारण के लिए नियत ‘गंगा बेसिन कमेटी’ के अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं ?

आप कहेंगे कि ये समय इन बातों को करने का नहीं है ? तो कोई मुझे बताएगा की ऐसी बातें हम कब कर सकते हैं ? अरे जब बच्चा रो रहा है तब दूध नहीं दोगे तो भला हँसते समय आपका उधर क्या ध्यान जायेगा!

जब मौसम विभाग ने 12 जून को ही ये सूचना दे दी थी कि उत्तराँचल में तीव्र मानसून की संभावनाएं हैं तब प्रांतीय और केंद्रीय सरकार ने कौन से कदम उठाये ? क्या कैलाश मानसरोवर और अमरनाथ यात्रा की तर्ज़ पर कंटकाकीर्ण केदारनाथ मार्ग पर जाने वाले यात्रियों को सूचीबद्ध नहीं किया जा सकता ?किसी को कुछ पता नहीं है कि यात्रियों की वास्तविक संख्या कितनी है ? क्या सब कुछ अनुमान के बूते ही चलता रहेगा ?उत्तराखंड में जो पर्यटक आते हैं क्या उनसे विभिन्न मदों में प्राप्त राजस्व सरकार की धनराशी नहीं है।सुपर पावर का दम भरने वाले हमारे देश में क्या वोट भगवान को दिए जाते हैं ? व्यक्ति की सुरक्षा और जीवन की रक्षा पूरे सभ्य विश्व में सभी सरकारों का दायित्व है।

सन 2005 में गठित ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन’ के प्रमुख अधिकारी एम .शशिधर रेड्डी कहते है कि पिछले आठ वर्षों से उनके भेजे गए प्रस्ताव सरकारी फाईलों में धूल चाट रहे हैं।पूरे देश में बाढ़ के खतरे को बताने के लिए कुल 21 केंद्र हैं,जिनमे से मात्र एक उत्तराखंड राज्य में है।देश के बजट में सिर्फ 348 करोड़ रूपये सालाना इस तरह की आपदाओं के लिए सुनिश्चित किया जाता है।इससे ज्यादा बजट तो विधान सभाओं और संसद की केंटीनों का है।राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के अफसरों की हमेशा से ये शिकायत रही है कि सरकारी एजेंसियों से उनका तालमेल नहीं बन पाता है।यही नहीं उनका ये भी रोना है कि उन्हें निर्णयगत स्वतंत्रता नहीं है।आश्चर्य की बात ये है कि आपदा प्रबन्ध विषयक अनेक योजनायें 1975 से सरकारी दफ्तरों में झूल रही हैं।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि विकास कार्यों को पूर्ण होने में कईं साल लग जायेंगे।केदारनाथ यात्रा तो एक साल से पहले शुरू ही नहीं हो सकती ? आपको याद होगा सन 2004-5 में ब्रिटेन में आई जबरदस्त बाढ़ में सब तबाह हो गया था।लेकिन कुछ ही महीनों के अंतराल पर वहां के शहर और सड़कें पहले से भी अधिक समुन्नत दिखाई दे रहे थे।जापान में 11 मार्च 2011 को आई सुनामी में भयंकर तबाही हुई थी।इसे द्वितीय विश्व युद्ध सरीखी विभीषिका की संज्ञा दी गयी थी लेकिन उसी वर्ष माह जून में जब विश्व बैंक की टीम ने वहां का दौरा किया तो जापान पहले से भी बढ़िया हालत में था। प्राकृतिक आपदा के उपरान्त हमारे पडौसी देश चीन ने भी हैरतंगेज ढंग से नुकसान को सहेजने में सफलता अर्जित की है।12 मार्च 2013 में मॉरिशस में आई बाढ़ में सात लोगों की मृत्यु हो गई थी ,इस घटना को वहां राजकीय शोक मानकर अवकाश घोषित किया गया, लोगों ने अपने घरों से टी वी फ्रिज़ तथा घरेलू सामानों का पीड़ितों के घरों के बाहर अम्बार लगा दिया।तीन दिन में क्षतिग्रस्त क्षेत्र को पुनः संवार दिया गया।विदेशों से विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया।मैं उस वक़्त मॉरिशस में ही था ,वहां के उप प्रधानमंत्री अनिल बेचू ने मुझे बताया कि हम मानवीय स्तर पर भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी भी नहीं होने देंगे।

उत्तराखंड में ही आप और हम यदि अतीत की बदलियाँ छाटें तो कुछ उल्लेखनीय तथ्य प्रकाश में आते हैं।वर्ष 1894 में विरही ताल में अंग्रेजों को जब पता चला कि तेज़ बारिशों से ताल का जलाशय ओवर फ्लो होने वाला है तो उस आदिम युग में उन्होंने रातों -रात 14-15 किलोमीटर लम्बी टेलीफ़ोन लाइन बिछाई और भयानक त्रासदी की पूर्व सूचना पर वहां फंसे सैकड़ों लोगों को बचाया।दस्तावेज़ बतातें है कि दो या तीन लोग ही उस घटना में मारे गए थे।ये उसी क्षेत्र की बात मैं कर रहा हूँ जहाँ मौज़ूदा हादसा हुआ है।सूझबूझ, तकनीक,ज़िम्मेदारी और बुद्धिमानी के बल पर बड़ी से बड़ी आपदा से उबरा जा सकता है ,बशर्ते आप उससे उबरना चाहते हों ? इस घटना में आई टी बी पी और सेना के जवानों ने जो राहत कार्य किये और किये जा रहे हैं वे प्रशंसनीय हैं।हैलीकोपटर बराबर काम कर रहे हैं।इस आपदा की घड़ी में हर कोई पीड़ितों के साथ है ,लेकिन यदि इस घटना से हमने भविष्य में सबक नहीं लिया तो उन लोगों की जानें व्यर्थ जाएँगी जिन्होंने असमय ही जलसमाधि ले ली।

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