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कौन है असली गुरु ?

SHABDARCHAN
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( गुरु पूर्णिमा 22 जुलाई पर विशेष )
कौन है असली गुरु ?
भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु की बड़ी महिमा रही है।वैसे तो दुनिया की अधिकांश सभ्यताएं अपने शिक्षकों के प्रति सदैव नतमस्तक रही हैं ,परन्तु भारत में गुरु परम्परा की जो शानदार विरासत रही है ;उसका सानी कोई नहीं।गुरुओं के प्रति इस अगाध श्रृद्धा के अनेकानेक कारण हैं।गुरुओं द्वारा स्थापित अनेक मर्यादाएं और व्यवस्थाएं आधुनिक मनुष्य की यात्रा में मील का पत्थर साबित हुई हैं; चूँकि भारतीय सामाजिक परिवेश आध्यात्मिक पगडंडियों से गुजरता हुआ अपने जीवन की यात्रा को पूर्ण करता है अतः यहाँ के जीवन मूल्यों में गुरु परम्परा और भी आत्यंतिक सन्दर्भों को आत्मसात करती है।

शिक्षक शिक्षा देता है जबकि गुरु दीक्षित करता है।दो और दो चार होते हैं इसका ज्ञान शिक्षा के अंतर्गत आता है ,परन्तु इसका समुचित उपयोग दीक्षा की परिधि में आता है।शिक्षित व्यक्ति साक्षर हो सकता है परन्तु दीक्षित व्यक्ति साक्षर होने के साथ-साथ सम्बंधित शिक्षा के समुचित उपयोग को समझता है।कहने को तो ओसामा बिन लादेन भी इंजिनियर था,लेकिन यहाँ दीक्षा के अभाव की अतिशयता ने मानवीय मूल्यों के बजाय उसे विध्वंश को और उत्प्रेरित किया जबकि अनपढ़ कबीर की देशनाएँ आज सैंकड़ों साल बाद भी मानवीय मन का संबल बनी हुईं हैं।जो कभी विद्यालय नहीं गया, आज देश और दुनिया के अनेक विश्वविद्यालय कबीर के नाम पर अपने यहाँ शोध कार्यों पर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।ओसामा आज की शिक्षा का कुरूप चेहरा है, तो कबीर का व्यक्तित्व गुरु रामानंद के श्री चरणों का प्रसाद।जहाँ तराशा गया मन सभी के कल्याण की चिंता करता है। तभी तो कबीर ने अपने गुरु को ईश से भी प्राथमिक माना और कहा –
‘गुरु- गोविन्द दाऊ खड़े काके लागो पाय,
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।’

भारत देश की अपनी अनन्य विशेषताएं हैं दीक्षा का विचार सर्वप्रथम भारतीय ऋषियों को सूझा।भारतीय ऋषियों ने अपने शिष्यों को शिक्षित करने के बजाय दीक्षित करने पर ज़ोर दिया।दीक्षा संस्कारों और सम्यक चेतना का एक ऐसा वैचारिक सम्मिश्रण हैं, जहाँ व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों का प्रहरी होकर जीवन कर्तव्यों के पथ पर अग्रसर होता है।आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोह आयोजित करने के पीछे यही उद्देश्य था कि विद्यार्थी जब शिक्षालयों से पढ़कर बाहर जाएँ, तो वे ज्ञान और मानवीयता का ऐसा सुन्दर नमूना हों ; जिस पर आने वाली पीढ़ियाँ गर्व कर सकें।जो अपनी शिक्षा के आधार पर एक ऐसे समाज के निर्माण में सहयोगी हों ,जो दुनिया को उतनी समुन्नत और खुशहाल बनाने में योगदान दें सकें ,जितना की उनसे पूर्व उपलब्ध ना थी ।

जो गुरुकुल में विषयक ज्ञान के अधिष्ठाता थे वे ‘आचार्य’ कहलाये।जिन्होंने उपलब्ध ज्ञान से आगे के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया उन्हें ‘ऋषियों’ की संज्ञा दी गई।स्वयं में ही स्थितप्रज्ञ योगी ‘संन्यास’ के पात्र बने जबकि मंदिर और मठों में कर्मकांडी शास्त्रीगण पुजारी महंत या पुरोहित कहलाये।’ब्राह्मण’ का शाब्दिक अभिप्राय है ‘ब्रह्म’ + ‘अणु’ ,जिस व्यक्ति के जीवन में ईश्वरीय गुणों का समावेश हो, वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी था।ऐसे ही ‘पंडित’ शब्द पांडित्य से आया है ,जिसका भावार्थ है ;किसी भी विषय का सर्वोच्च ज्ञान रखने वाला व्यक्ति। सार्थक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु निश्चित नियमों के अंतर्गत साधना करने वाले ‘साधक’और ‘सिद्ध ‘ बने, तो तंत्र की वाममार्गी शाखा के अनुयायी ‘अघोरी’ या ‘औघड़’कहलाये।मन के मालिक और तन की आवश्यकताओं को जीतने वाले ‘मुनि’ थे।शारीरिक ज़रूरतों और सांसारिक वस्तुओं के मोह से ऊपर उठकर एक लक्ष्य बिंदु को आत्मसात करने वाले ‘तपस्वी’बने । यहाँ गुरुओं की इन श्रेणियों के पीछे एक बात समान थी।सभी के समग्र कल्याण की कामना और उसके समुचित उपाय।स्वामी विवेकानंद कहा करते थे -‘अच्छा गुरु ही अच्छा योगी हो सकता है, और अच्छा योगी ही उपयोगी हो सकता है।”
गुरु परम्परा को अतिशय मान तब मिला, जब भारत में एक दिव्य संत नानक के जीवन और कार्यों की सुरभि सर्वत्र सुवासित हुई।उन्हें सभी धर्मों ने बहुत माना।हिन्दू धार्मिक गुरु के रूप मंय वे मक्का -मदीना की यात्रा करने वाले अंतिम व्यक्ति थे।’शिष्य’ शब्द भी गुरु शब्द का परिपूरक है।शिष्य ‘शीश’ शब्द से आया है, जिसका एक अर्थ ‘सिर’ भी है।अर्थात जो अपने शीश तक को काटकर गुरु को अर्पित करने का भाव रखता हो, वही वास्तविक शिष्य है। ‘सिख’ शब्द जो आज एक प्रतिष्ठित धर्म की मान्यता रखता है, शिष्य शब्द का ही अपभ्रंश है।विभूतियों के नाम से आगे गुरु शब्द लगाने की परम्परा भी गुरु नानक देव के बाद ही शुरू हुई।यही नहीं इस शब्द को इतना अधिक पवित्र और दिव्य माना गया की सिख धर्म के सर्वोच्च ज्ञान समुच्चय को ”गुरु ग्रन्थ साहिब ‘के नाम से जाना जाता है।
गुरुओं की स्तुति और समादर में भारतीय ग्रन्थ भरे पड़े हैं।गुरु महिमा में कहा गया है कि –
”गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरा
गुरुर साक्षात् परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।”
कालिदास विश्व के विख्यात कवि कहलाये।परन्तु प्रारंभ में वे मूर्ख,निरक्षर और अबोध व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे।जब उनकी पत्नी ने उन्हें महल से धक्का देकर बाहर निकाल दिया तो संयोगवश मार्ग में उन्हें विख्यात योगी कालीचरण के दर्शन हुए।गुरु ने कालीदास से कहा कि तुम निरक्षर हो अतः तुम स्वाध्याय तो नहीं कर पाओगे, मैं तुम्हें मंत्र दीक्षा के माध्यम से अभीष्ट सिद्धि का मार्ग बता सकता हूँ।तीन महीने के तप के बाद उनकी सेवा और साधना से प्रसन्न होकर गुरु कालीचरण ने उन्हें ”शाम्भवी दीक्षा ” प्रदान की।जिससे कालिदास के भीतर का ज्ञानदीप प्रदीप्त हो उठा।कंठ से वाग्देवी प्रकट हुई ,और स्वतः काव्य उच्चारित होने लगा।कालांतर में कालिदास अद्वितीय कवि बने , उनके द्वारा रचित काव्य ‘कुमार संभव’,’मेघदूत’ और ‘ऋतुसंहार’ का दुनिया भर में कोई मुकाबला नहीं है।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जब मथुरा में चक्षुहीन दंडीस्वामी गुरु विरिजानंद को अपना गुरु बनाने के लिए उनकी झोपड़ी के द्वार पर पहुंचे, तो भीतर से गुरु की आवाज़ आई- ‘कौन ?’ तब दयानंद का प्रति उत्तर था -‘यही तो जानने आया हूँ ?’ वस्तुतः वास्तविक गुरु को खोजने के लिए वास्तविक शिष्य का होना बहुत ज़रूरी है।एक सच्चा शिष्य ही सच्चा गुरु हो सकता है।सम्बुद्ध गुरु शिष्य का समग्र रूपेण रूपांतरण करता है।यानि व्यक्ति ‘गुरु पूर्व’ और ‘गुरु पश्चात’इन दोनों श्रेणियों को पार करने के लिए बहुत सी विधियाँ और नीति -नियम है ,जो प्रत्येक गुरु अपनी परम्परा के अनुसार तय करता है।
एक बहु प्रचलित सूक्ति है कि जीवन में हमारी प्राथमिक गुरु हमारी माता है।काफी हद तक यह तथ्य सत्य प्रतीत होता है।बचपन में जो भी संस्कार और प्रेरणाएं बच्चों को दी जाती हैं ,भावी जीवन की ईमारत फिर उन्हीं पर रद्दा दर रद्दा, ईंट दर ईंट रखी जाती हैं।प्रायः जितने भी लोग महान बने उनकी माताओं का उसमे बहुत अधिक योगदान देखने को मिलता है।

विश्व विजयी सिकंदर का गुरु डायोजनीज ही सिकंदर को एक अति महत्वकांक्षी युवराज के रूप में अभिप्रेरित करता है और बाद में जब वही डायोजनीज भारत प्रवास के दौरान आचार्य चाणक्य को अपना गुरु मान लेता है, तो सिकंदर को बीच अभियान से वापस ग्रीक लौटने के लिए राज़ी भी कर लेता है।कहा जाता है कि सिकंदर की मरते वक़्त अपने दोनों हाथ ताबूत से बाहर लटकाने की इच्छा आचार्य चाणक्य द्वारा सिकंदर के गुरु डायोजनीज को दिए गए एक प्रेरक किन्तु सूक्ष्म उपदेश का ही नतीज़ा थी।

आज के बदलते परिवेश में सब बदल रहा है, गुरु शिष्य के मायने बदल रहे है।शिक्षा के अर्थ बदल गए हैं।चरित्र और सदाचार से दूर शिक्षक बच्चों को अनर्गल ज्ञान की दीक्षा दे रहे हैं।बच्चे भी भविष्य की स्वर्णिम संभावनाओं के बजाय एक बोझ में तब्दील होते जा रहे हैं।माँ बाप उन्हें जल्द से जल्द ‘सैट’ करने को उतावले हैं।लड़की ससुराल में जाकर ठीक हो जाएगी और बेटे को तो बहू ही सुधारेगी,के जुमलो से सब अपने अपने दायित्वों से विमुख होते जा रहे हैं।शिक्षालयों को चलाने का ज़िम्मा पूंजीपतियों पर आ गया है।जो सिर्फ़ वो करना चाहते हैं जिससे और अधिक पूंजी का घेरा घूमता रहे।भ्रष्टाचार और अनैतिकता में लिप्त अनेक शिक्षक सिर्फ इसलिए अध्यापन का कार्य कर रहे हैं ,क्योंकि उन्हें दूसरी जगह जॉब नहीं मिली।आज भी अगर हज़ार रूपये ज्यादा मिल जाएँ ,तो वे पढ़ाने का काम छोड़कर नगर निगम में मुलाजिम हो जाएँ।
तथाकथित गुरुओं की फौज़ एक भय बनकर टेलिविज़न पर अवतरित हो रही है।जो कभी नेपाल भी नहीं गए वे खुद को विश्वप्रसिद्द बताकर भोले-भाले पीड़ित लोगों को ठगने का काम कर रहे हैं।टी वी पर आने वाले ज़्यादातर बाबा पैसा भरकर अपना प्रोग्राम प्रस्तुत करते हैं।उनके प्रोग्राम को टी वी प्रबंधन एक विज्ञापन के रूप में ट्रीट करता है।जनता की जेबें और विश्वास दोनों ढीले हो रहें हैं।जिन लड़कियों का डिप्रेशन का ईलाज चल रहा है ,वे आपका कल बताने का दम भर रही हैं।अपना भविष्य,भूत,वर्तमानं कुछ ज्ञात नहीं दुनिया का भला करने निकले हैं ?
असल में सच्चा गुरु कुछ भी नहीं देता उलटे आपसे लेता है।लेता है आपका अज्ञान, आपके व्यसन ,आपकी बुराईयाँ और वो सब जो आप, आपके जीवन और समाज के लिए ज़रूरी है।इस लेने में बहुत कुछ देना छिपा है और देने में पाने का अपूर्व अहसास।तभी एक नए मनुष्य का जन्म होता है जो दुनिया के लिए शुभ हो सकता है और दुनिया में सर्वत्र उसे भी शुभता और शुचिता के दर्शन होते है।इस दिव्य बिंदु पर गुरु शिष्य परम्परा रुपी मंदिर के स्वर्णकलश सभी को दृष्टिगोचर हो सकते है।तभी ज्ञान के व्योम में गुरता का चन्द्रमा दमक सकता है ,तभी सच्ची गुरु पूर्णिमा हो सकती है -अस्तु!

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