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हिंदी के वैश्विक सरोकार

SHABDARCHAN
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‘जहाँ वेद का ज्ञान निहित है
अपनेपन की आशा है,
विश्व भाल पर नित्य दमकती
अपनी हिंदी भाषा है। ‘
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हिंदी भाषा रीढ़ की अस्थि है। स्वतंत्रता पूर्व और उसके पश्चात भारतीय संचार के क्षेत्र में हिंदी भाषा ने न सिर्फ समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रखा अपितु जनसामान्य में संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा के प्रसार में दीपस्तंभ भी सिद्ध हुई । आज जनसंचार के प्रायः समस्त क्षेत्रों में हिंदी के वर्चस्व को देखा जा सकता है। ‘मुद्रित’ माध्यम हो या ‘इलेक्ट्रोनिक’ सभी में हिंदी ने अपनी अनिवार्य आवश्यकता को प्रतिबिंबित किया है। सूचना संचार के वैश्विक पटल पर हिंदी परस्पर प्रेम और संबंधों को सींच रही है। दुनिया के अनेक देशों से संचालित वेब पोर्टल्स की हिंदी भाषा को एक विकल्प के रूप में चुनने की विवशता, इसकी अतिशय लोकप्रियता और वांछनीयता की ओर संकेत करती है।
हिंदी एक भाषा नहीं एक संस्कृति है,एक वैचारिक क्रांति है, जो सदियों से अपनी यात्रा के अनंत पड़ावों और मोड़ों से होती हुई, एक ऐसी गंगा में परिवर्तित हो गई है ,जिसका भाव तन के मैल से मुक्ति देता है, तो उसके साहित्य का प्रभाव मन के मैल को धोने का काम करता है। इस हिंदी रूपी गंगा में अनेक दिशाओं से असंख्य धाराएँ आकर मिलती रही और उसने उन सभी को सहजतापूर्वक स्वीकार भी किया। हिंदी के दामन में जो भी भाषा और बोली आकर गिरी, वह और उजली और निखरी बनकर उभरी।
आज के बदलते परिवेश में हिंदी अपने परंपरागत आवरण से बाहर निकलकर सकल विश्व को अचंभित और प्रभावित कर रही है। एक भाषा के तौर पर हिंदी ने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ दिया है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है वह उसके महत्व और लोकप्रियता को रेखांकित करता है। संभवतः ही कोई अन्य भाषा विश्व में हिंदी की तर्ज पर इस तरह से विस्तारित हुई हो ? इसके पीछे कौन से कारण रहे हैं, यह विमर्श और शोध का विषय है।
प्रयोगिक सन्दर्भों में देखें तो 1952 में हिंदी विश्व में पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह ‘चीनी’ और ‘अंग्रेजी’ भाषा के बाद तीसरे स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि मैं कहूं कि हिंदी अपने शानदार भविष्य की चौखट पर खड़ी है । कल वह चीनी भाषा को पछाड़कर नंबर एक होने का गौरव अर्जित कर ले ,तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। निश्चित ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं, जो हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय रूप से कार्यरत हैं। आज की वास्तविकता यह है कि बाजारवाद में उदित नई संभावनाओं ने हिंदी की स्वीकार्यता को अभूतपूर्व आयाम प्रदान किये हैं।
हिंदी की इस चमक से विश्व के हिंदी प्रेमियों की आँखों में आशा और विश्वास का एक नया उजियारा बिखर रहा है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि भाषा यदि रोजगार और संवादपरक नहीं है,तो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगना अवश्यम्भावी है।
मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक ‘अयापनेको’, यूक्रेन की ‘कैरेम’,ओकलाहामा की ‘विचिता’, इंडोनेशिया की ‘लेंगिलू’ भाषा आज अगर अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं, तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य कारण हैं।
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार संपूर्ण विश्व में कुल भाषाओँ की संख्या 6809 है। इन भाषाओँ में से 90 प्रतिशत भाषाएँ ऐसी हैं,जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक लाख से भी कम है। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं। इनमें से कईं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं के रूप में सूची बद्ध किया जा रहा है। लगभग डेढ़ -दो सौ भाषाएँ ऐसी भी हैं ,जिन्हें 10 लाख से अधिक लोग बोलते हैं।जबकि 357 भाषाएँ ऐसी हैं जिनको मात्र 50 व्यक्ति ही प्रयोग में लाते हैं।इतना ही नहीं 46 भाषाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें मात्र एक-एक आदमी बोलता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराये गए एक अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि मातृभाषाओं के रूप में विलुप्तिकरण के कगार पर जो भाषाएँ वर्ष 2001 में लगभग 900 की संख्या में थीं , उन भाषाओँ की संख्या सन 2012 तक आते-आते लगभग 2950 पहुँच गयी है। विलुप्तिकरण का यह ग्राफ लगभग तीन गुने से भी अधिक के आंकड़े को पार कर गया है।
एक सर्वग्राह्य वैश्विक भाषा के तौर पर अंग्रेजी ने अपनी लोकप्रियता और उपादेयता सर्वथा सिद्ध की है।अंग्रेजी की इस सफलता की पृष्ठभूमि में अन्य अनेक कारण विद्धयमान हैं। वह अपने शानदार संवाद और व्यापारिक रथ पर सवार होकर कामयाबी की पगडंडियों से गुज़र रही है।विकसित राष्ट्रों की दूरगामी सोच ने अंग्रेजी को अपना वैश्विक चरित्र गढ़ने में खाद -पानी का काम किया है।

आज हिंदी भाषा भी उसी पथ पर प्रवाहरत है। भाषाओँ की महा झील में हिंदी कमल के फूल की भाँति पाँखुरी -पाँखुरी खिल रही है।विश्व संवाद की कक्षा में हिंदी सशक्त भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है और सर्वाधिक सुखद यह है कि समग्र विश्व उसका ‘हार्दिक’ और ‘कार्मिक’ स्वागत कर रहा है। इसे हिंदी भाषा का सौभाग्य ही कहेंगे कि वह हमारी वर्तमान लोकप्रिय संस्कृति और देश के उभरते बाज़ार का सर्वाधिक सशक्त और दूर -दूर तक विस्तारित माध्यम है।निसंदेह आधुनिक भारत की अनेक भाषाएँ अवश्य हैं ,परन्तु हिंदी स्वतः स्फूर्त ढंग से उन सभी भाषा -भाषियों को आपस में जोड़ने वाला माध्यम बन गई है। हिंदी फिल्मों के संवाद तथा गानों और मुख्य धारा के हिंदी मीडिया ने इस भाषा को करोड़ों-करोड़ लोगों की वाणी बना दिया है। देश की एक बड़ी आबादी आज अपने मनपसंद समाचार -विचार ,खेल ,सिनेमा और राजनीति की समस्त सूचनाएँ इसी भाषा के माध्यम से प्राप्त करती है । दुनिया की हर बड़ी मीडिया कंपनी ,बैंकिंग प्रतिष्ठान ,सोफ्टवेयर कंपनियां ,तथा सोशल नेटवर्किंग साईट्स हिंदी को लेकर नित नए प्रयोगों में जुटी हैं। हिंदी समाचारों और कार्यक्रमों के चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। ‘डिस्कवरी’ और ‘एन.जी.सी.’ समेत प्रायः सभी बड़े चैनल अपने लोकप्रिय और व्यापक टी आर पी कार्यक्रमों का निर्माण हिंदी भाषा में कर रहे हैं।
जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े वर्ग से संपर्क साधने का सबसे सशक्त माध्यम मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं। छात्र समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडे़ के मुताबिक दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालयों और कई छोटे-बड़े शिक्षण संस्थाओं में रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक आकर्षक भाषा व माध्यम बनती जा रही है।
भारतीय लोकतंत्र के संचार प्रासाद की नींव का प्रथम पत्थर ‘हिंदी’ है।आज कोई भी बड़ा आंदोलन हो अथवा जन-अभियान, जब तक वो हिंदी के कंधों पर सवार नहीं होता ,उसे अपने प्रशस्ति मंदिरों के स्वर्ण कंगूरे दृष्टिगोचर नहीं हो पाते। राष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले समाचार पत्र हिंदी भाषा में ही प्रकाशित हो रहे हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय टेलीविज़न कार्यक्रमों का निर्माण भी हिंदी में ही किया जा रहा है।प्रायः सभी मोबाइल कंपनियों द्वारा हिंदी में एसएमएस करने की सुविधा उपलब्ध है। लाभ को बाँटने और अधीनस्थों को डाँटने के लिए भले ही अंग्रेज़ी का इस्तेमाल होता हो परन्तु हृदय और मस्तिष्क की संजीवनी मात्र हिंदी ही है।
लगता है राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जी के वे उद्गार सत्य होने के निकट हैं जब उन्होंने कहा था कि – ‘ हिंदी उन सभी गुणों से अलंकृत है ,जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओँ की अगली श्रेणी में आसीन हो सकती है।”

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