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असतो मा शिव गमय

SHABDARCHAN
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समूचे विश्व में भगवान शिव करोड़ों -करोड़ भक्तों के हृदयों में विराजते हैं।शायद ही दुनिया का कोई ऐसा मंदिर हो,जहाँ शिव की उपस्थिति ना हो।संभवतः हिन्दू धर्मावलम्बियों के समस्त आस्था केन्द्रों में सर्वाधिक संख्या शिवालयों की ही है।महा शिवरात्रि समस्त हिन्दू प्राण भक्तों के समर्पण का महापर्व है।
शिव आदि काल से समूची मनुष्यता को एक लय में बांधें रहें हैं।शिव अकेले ऐसे देव हैं, जो मंदिर में भी विराजमान हैं और शमशान में भी ,और किसी देव को यह दर्ज़ा हासिल नहीं।मानो शिव हमें सदैव यह संदेश देना चाहते हैं कि दुनियादारी में भरपूर रमो लेकिन अंतिम गंतव्य मरघट ही है,जहाँ पर मैं तुम्हारे अंतिम स्वागत को हाज़िर हूँ।शिव को काल का देव इसी लिए कहा गया कि वे सृष्टि के चक्र को पूर्ण करते हैं।जीवन से मृत्यु का चक्र।यही नहीं शिव इस मामले में भी अनोखे हैं कि उनके जन्म और मृत्यु का कोई वर्णन नहीं मिलता।शिव ही एक मात्र ऐसे ऊर्जा पुंज हैं ,जिनका उल्लेख वेदों में भी मिलता है, यथा –
” ओउम नमः सम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय
च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।।
(यजुर्वेद ,अध्याय -16 मंडल-41)
यही नहीं ‘अथर्ववेद’ में शिव को सहस्त्र नेत्र वाला कहा गया है जबकि ‘यजुर्वेद’ और सबसे प्राचीनतम ‘ऋग्वेद’ में शिवतत्त्व का विस्तार से वर्णन मिलता है।
शिव अकेले ऐसे देव भी हैं जिनकी ब्रह्म स्वरुप यानि ‘लिंग’ और ‘मूर्ति’ स्वरुप यानि प्रतिमा ,दोनों स्वरूपों में पूजा का विधान है ,अन्य किसी देव का नहीं।’शिव सूत्र ‘ के अनुसार दुनिया के अनेक धर्मों का पूजन विधान शिव आराधना से ही अभिप्रेरित है।

महर्षि दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज में यूँ तो मूर्ति पूजा का एकदम निषेध है।लेकिन ईश स्तुति के लिए स्वामी दयानंद ने भी कईं स्थानों पर शिव पूजन के सर्वोच्च ग्रन्थ -‘रुद्राअष्टाध्यायी ‘ का सहारा लिया है। स्वामी जी की प्राण पुस्तक’ संस्कार विधि ‘ में ‘स्वस्तिवाचनम’ और ‘शान्तिप्रकरण’ के 13 मंत्र इसके प्रमाण हैं।
हिंदू धर्म ग्रंथों में एक कथा आती है कि एक बार विष्णु और ब्रह्मा में इस बात को लेकर विवाद हुआ कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? तभी उन दोनों के मध्य ज्योतिर्मय लिंग प्रकट हुआ।दोनों ही उसे देखकर पहले तो चकित हुए फिर निर्णय किया कि जो भी इस लिंग का आदि और अंत जान लेगा वही श्रेष्ठ होगा।ब्रह्मा जी ने ऊपर की ओर तथा विष्णु ने नीचे की तरफ प्रस्थान किया।सहस्त्रों दिव्य वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन दोनों में से कोई भी उस ज्योतिर्मय लिंग के मूल व अंत का पता ना लगा सका।अंततः विष्णु ने तो अपनी हार मान ली ,परन्तु तमोगुणी होने के कारण ब्रह्माजी बोले कि उन्होंने लिंग के छोर का पता लगा लिया है। साक्षी के रूप में केतकी से भी कहलवा दिया।ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई -‘ब्रह्मा और केतकी तुम असत्यवादी हो !’ आकाशवाणी सुनकर ब्रह्मा लज्जित हो गये।विष्णु और ब्रह्मा सोचने लगे की यह आकाशवाणी करने वाला कौन हो सकता है ? उनके संशय को दूर करते हुए भगवान शिव प्रकट हुए और बोले कि तुम दोनों व्यर्थ का विवाद कर रहे हो।वास्तव में सृष्टि का स्वामी,आदिरूप तो मैं हूँ।सृष्टि की उत्पत्ति के समय मैंने ही तुम दोनों को भी पैदा किया था।ब्रह्मा,विष्णु और महेश मेरे ही रूप हैं।ब्रह्म के अस्तित्व और यथार्थ रूप का ज्ञान कराने के लिए ही मैंने उस ज्योतिर्मय लिंग की उत्पत्ति की थी;जिसका तुम पार ना पा सके।तब शिव ने ब्रह्मा को श्राप दिया कि तुमने असत्य वचन कहा था,इसलिए सृष्टि में कभी तुम्हारी पूजा नहीं होगी।केतकी ने तुम्हारा साथ दिया ;इसलिए मेरी पूजा में इसे स्थान नहीं मिलेगा।’कहा जाता है की शिव उसी से प्रसन्न होते हैं जो सत्यवादी होता है।तभी तो कहा गया है -‘सत्यं शिवम् सुन्दरम’ ,अर्थात जो सत्य है,वही शिव है और जो शिव है, वही सुन्दरतम है। हमारा मंत्र होना चाहिए -असतो माँ शिव गमय !
स्कन्द पुराण’ में ज्योतिर्लिंग का महत्व प्रतिपादित करते हुए वर्णन आता है कि आकाश ही लिंग रूप है और पृथ्वी उसकी पीठिका (आधार ) है।प्रलय काल में सृष्टि ,देवता आदि इसी लिंग में समाविष्ट हो जाते हैं।समस्त देवताओं का प्रादुर्भाव भी ज्योतिर्लिंग से ही माना गया है।
यथा –
‘आकाशं लिंग मित्याहु: पृथ्वी तस्य पीठिका,
आलयः सर्व देवानां लयनार्लिंग मुच्यते।।’
महा शिवरात्रि फाल्गुन मास की त्रियोदशी /चतुर्दशी को पड़ती है ,इस दिन अल्पाहार करने से आगामी छह माह तक आरोग्यता बनी रहती है ,चूँकि भारतीय मौसम चक्र के मुताबिक यह ऋतु परिवर्तन का समय होता है ऐसे में व्रती रहने से शरीर निरोगी बनता है, संभवतः इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राचीन ऋषियों ने व्रत की परंपरा को प्रोत्साहित किया।
यदि हम शिवालयों में स्थापित शिव परिवार को गौर से देखें तो हमें कईं बातों की अप्रत्यक्ष प्रेरणा मिलती है। शिव का वाहन नंदी (बैल),माता पार्वती का शेर ,गणेश जी का वाहन चूहा और शिव के दूसरे पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर है।शिव के गले में साँप झूल रहे हैं।बैल का परम शत्रु सिंह है।साँप का सर्वप्रिय भोजन चूहा है जबकि मोर का भोजन सांप है।परस्पर परम शत्रु होते हुए भी ये सब एक साथ, एक ही परिवार में प्रेमभाव से रहते हैं।अर्थात जीवन के सामाजिक और नैतिक परिप्रेक्ष्य में यदि हमें परस्पर अन्तर विरोधों और संघर्षों का सामना भी करना पड़े तो भी हम प्रीतीपूर्वक यथायोग्य अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करते रहें ; यही ‘शुभत्व’ है यही ‘शिवत्व’ का सार है।
शिवलिंग पर चढ़ाई जानेवाली वाली वस्तुवें हमारे स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी हैं ,यथा दूध,दही,घी,शहद बेल तथा फल।आशय है की जब हम इन वस्तुवों को बार -बार भगवान को समर्पित करेंगे तो ये सब हमारे घरों में लाईं जाएँगी ,जब घरों में होंगी तो हम इनका सेवन भी करेंगे और जब सेवन करेंगे तो सदा -सर्वदा स्वस्थ बने रहेंगे।जब आरोग्यता आपकी दासी होगी तो स्वमेव वहां शिवत्व का वास होगा।कहा गया है स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मष्तिष्क का वास होता है।जब आपका मष्तिष्क चुस्त-दुरुस्त होगा तो आपके सभी कार्य विवेकपूर्ण और परिणामकारी होंगे,स्वाभाविक रूप से तब वह गणेश जी का आशीर्वाद ही होगा।तभी तो उन्हें बुद्धि का देवता कहते हैं। यहाँ एक बात यह भी समझने योग्य है कि जिस चीज़ को आप भगवान को नहीं अर्पित करते उसका सेवन स्वयं भी नहीं करना चाहिए।यथा शराब और मदिरा शिवलिंग पर निषेध है, तो उसका जीवन में भी निषेध अनिवार्य होना चाहिए।

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