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कौन है पूजनीय ?

SHABDARCHAN
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हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को अपनी संकीर्ण विचारधारा से बाहर आना चाहिए। वस्तुतः ‘हिन्दू’ शब्द ही हिंदुत्व से जुड़ा है जिसका अभिप्राय है- ‘जीवन गति की एक विशिष्ट शैली !’ द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने शिरडी के साईं बाबा को नहीं पूजने की वकालत तो की है लेकिन क्या पूजनीय है यह स्पष्ट नहीं किया है। यहाँ एक प्रश्न यह भी जन्मता है कि वास्तव में पूजा किसकी होनी चाहिए। मैं भी शिरडी बाबा को भगवान नहीं मानता लेकिन क्या किसी की व्यक्तिगत विचारधारा से किसी महानतम आत्मा के दिव्य और नैसर्गिक गुणों को काम करके आँका जा सकता है। बुद्ध कहते है जो इंसान की सोच और क्षमताओं से परे जाकर मानव कल्याण के लिए जिए वह भगवान ना भी हो इंसान तो नहीं है। यहाँ उनका इशारा व्यक्ति की मानवीय श्रेष्ठताओं को सम्पूर्ण सम्मान देने से था।
साईं बाबा ने अपने जीवन काल में दिए गए अपने संक्षिप्त उद्बोधनों में कभी भी इस बात पर बल नहीं दिया कि उन्हें पूजा जाये या फिर उन्हें भगवान ही माना जाये। बहुत सादगी और सरल जीवन जीते हुए उन्होंने अपना सर्वोच्च वाक्य उद्घोषित किया -‘सबका मालिक एक ! ‘ उन्होंने यह नहीं कहा की सबका मालिक मैं ?
वो कौन ‘एक’ है जिसकी ओर साईं बाबा इशारा करते रहे ;उसे समझने की ज़रूरत है। भगवान के स्वरुप के विषय में वेदों में स्पष्ट इंगित है। वेद सर्वोच्च सत्ता के अस्तित्व की वकालत करते हैं उसके निश्चित अवतरण की नहीं। शंकराचार्य जी इस मामले में ऊपरी तौर पर जो मर्ज़ी कहकर अपने स्टेटस को चमका लें ;यह बात तो वो भी जानते हैं कि ज़्यादा गहरे जाने पर बखेड़ा और भी ज़्यादा गहराएगा ?
फिर तो शंकराचार्य जिनके पूजने की बात कर रहे हैं उसपर शास्त्रीय मत एकदम भिन्न हैं। वेद और उपनिषदों की प्राचीनता ,प्रासंगिकता और प्रमाणिकता पर अब पश्चिम के धर्माचारी भी एक मत हैं। वेदों और उपनिषदों में कहीं भी किसी भी प्रकार के स्वरुप को पूजने की बात नहीं कहीं गयी है। वहां सिर्फ पंचतत्व जिनसे हम सब बने हैं उनकी स्तुतियों के वर्णन हैं। सारे वेद और उपनिषद पृथ्वी ,आकाश ,अग्नि ,जल और वायु की पूजा और स्तुतियों से परिपूरित हैं। फिर तो श्री राम ,श्री कृष्ण,बुध ,महावीर ,हनुमान गणेश और सभी देवी देवताओं के लिए प्रश्न खड़े हो जायेंगे। फिर निर्णय करना और भी कठिन होगा कि कौन स्वीकार्य है और कौन त्याज्य ?
सबसे प्राचीन वेद ‘ऋगवेद’ में एक श्लोक आता है -‘ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंच्याम जगत्यां जगत ‘ अर्थात –‘ईश्वर इस जग के कण -कण में विद्यमान हैं।
यही नहीं ओर आगे बढिए –
‘न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चैन्नम
हदा मनीषा मनसभि क्ल्रिप्तोये एतदिविदुरमृतास्ते भवन्ति ।।’
(कठोपनिषद /अध्याय -2/बल्ली-3/श्लोक -9)
अर्थात उस ईश्वरीय अनुभूति का दृश्य दृष्टि से परे है।उन ईश्वरीय कणों को देखने और अनुभव करने के लिए इन्द्र्यीतीत अनुभूति की आवश्यकता है।आँख ही क्या उस परम ऊर्जा के क्षेत्र को सामान्यता मानवीय अंगों से देखा जाना संभव नहीं है।
वेद कहता है- ‘ न तस्य प्रतिमा अस्ति”.(यजुर्वेद /32/3)
उस ईश्वर की प्रतिमा परिमाण ,उस के तुल्य अवधि का साधन भी नहीं है।इसी प्रकार से अन्यत्र ‘यजुर्वेद”के 40 वें अध्याय के 8 वें मंत्र में पुनः कहा गया है कि ईश्वर ‘अकाय ‘है, यानी सूक्षम्तम
कण और कारण शरीर शून्य है। वह प्रभु एक ”अणु ” है।अर्थात वह छिद्र रहित और अछेद है। वेदों में ईश्वरीय सत्ता को ‘अस्नाविरम” अर्थात नस नाड़ी से विमुक्त बताया गया है
यही नहीं और आगे देखिये –
”एष सर्वेषु भूतेषु गुढोत्मा न प्रकाशते
दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्य सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।
अर्थात सम्पूर्ण भूतों से छिपा हुआ वह परमात्मा प्रकाशमान नही होता . उस ईश्वरीय अनुभूति को सूक्ष्मदर्शी पुरुषों द्वारा अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धि से देखा जा सकता है।इन शास्त्र वचनों से यह स्पष्ट है की वो परब्रह्म परमात्मा भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता .कुछ लोग इस पर भी शंका कर सकते हैं कि आँखों से न दिखाई देने के कईं अन्य कारण भी हो सकते हैं , हो सकता है परमात्मा अँधेरे के कारण न दिखाई देता हो ? उससे हम सूर्य के, चाँद के,तारागण के ,बिजली के अथवा अग्नि के प्रकाश में देखने में समर्थ हो सकते हों.
इन प्राथमिक शंकाओं के निर्मूलन भी शास्त्र में देखे जा सकते हैं .
यथा –
‘ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतो यमिग्न :
तमेव भांतमनु भाति सर्वंतस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।’
(कठोपनिषद /अध्याय -2/वल्ली -2/श्लोक -14)
अर्थात उस आत्मलोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता ,चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न ही वहां विद्युत का अस्तित्व है फिर अग्नि की तो बात ही करना व्यर्थ है ,इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि सब प्रकाशक पदार्थ उस परब्रह्म परमात्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं।उस परमात्मा का अंश अत्यंत सूक्ष्मतम है।उसके अस्तित्व से ही समस्त पदार्थों का अस्तित्व है।
आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए जिन उद्देश्यों और संकल्पों के साथ चार पीठों की स्थापना की थी, वें पीठें आज उन उद्देश्यों पर कितना खरा उतर रही हैं इस पर भी विचार की ज़रूरत है? 90 वर्ष के स्वामी स्वरूपानंद जी ज़रा सी बात पर एक पत्रकार को तमाचा रशीद कर देते हैं; यह कौन सी धार्मिक परम्परा का निर्वहन है ? कांग्रेस पार्टी के लिए इंदिरा गाँधी को हाथ का पंजा अपना पार्टी सिम्बल बनाने की प्रेरणा देने वाले शंकराचार्य ने हिन्दुओं के उत्थान और आध्यात्मिक विरासत को संपन्न बनाने के लिए क्या कुछ किया है यह सबके सामने है। आज वे नरेन्द्र मोदी से हिन्दुओं की आस्था बचाने की गुहार लगा रहे हैं । अब ये काम भी राजनीतिज्ञ ही करेंगे क्या ? फिर आपका दायित्व और कर्तव्य क्या है ? क्या सिर्फ लाल बत्ती की गाड़ी और मंत्रियों सरीखे सुख साधनों का भोग और प्रदर्शन से ही हिन्दू धर्म की रक्षा और उत्थान की इति श्री हो जाएगी ।
शकराचार्य जी को इसमें ब्रिटेन का हाथ नज़र आता है। क्या हिन्दू धर्म इतना कमज़ोर है कि सात समंदर पार से बैठकर कोई उसे मिटाने की योजनाएं बना सकता है ! जब वो ही ब्रिटेन यहाँ तीन सौ सालों तक राज करता रहा तब तो मिटा नहीं पाया और अब वो साईं बाबा के माध्यम से उसे मिटाने की साज़िश कर रहा है। हंसी आती है इन बातों पर और अफ़सोस भी ? याद रखिये जिस काल में हिन्दुओं पर सर्वाधिक ज़ुल्म ढाये गए और उनका सर्वाधिक धर्मांतरण किया गया; उसी स्याह युग में ‘हिन्दुओं के कालजयी ग्रन्थ ‘रामचरित मानस ‘और सर्वाधिक गाये जाने वाले ‘हनुमान चालीसा’ की रचना हुई। शंकराचार्य जी आपकी एकबात स्वतः ही स्वविरोधी है कि साईं बाबा को पूजने कोई मुस्लिम नहीं जाता मतलब फिर तो वह हिन्दुओं का ही आस्था केंद्र हुआ न ?

मौजूदा दौर में बाजार वाद ने सभी को लील लिया है। धर्म तो पुरा काल से इसका सबसे बड़ा केंद्र रहा है। शंकराचार्य जी को हिन्दुओं पर खतरा नहीं नज़र आ रहा उन्हें नज़र आ रहा है साईं मंदिर में आने वाला लगभग 450 करोड़ रूपये का सालाना चढ़ावा। एक आंकड़े के अनुसार लगभग 60 हज़ार लोग प्रतिदिन शिरडी आते हैं। वर्ष 2012 में मंदिर को 275 करोड़ रूपये नगद दान प्राप्त हुआ था। वहां रखा 300 किलो सोना,860 करोड़ की एफ डी ,तीन हज़ार किलो चांदी और साढ़े तीन करोड़ के हीरे असली फसाद की जड़ हैं। चार से आठ हज़ार विदेशी रोज़ाना शिरडी आते हैं। शनिवार और रविवार को भक्तों की संख्या का आंकड़ा एक लाख और गुरु पूर्णिमा को तीन से चार लाख तक पहुँच जाता है।
साईं बाबा माँसाहारी थे इस पर तो शंकराचार्य जी को एतराज़ है लेकिन देश के हज़ारों देवी मंदिरों में सैंकड़ों निरीह पशुओं की आज भी बलि दी जा रही है और उनके मांस को लोग प्रसाद मान कर भक्ष रहे हैं यह बड़े पुण्य का काम है क्या ? इसके बारे में ज़रा बोलो तो..! क्या मठों और मंदिरों में महंतों की आरतियाँ रमणीया नहीं उतारतीं ? क्या देवदासी प्रथा की आड़ में मासूम बच्चियों का शोषण नहीं हो रहा ? क्या देवालय देह्लीला के छदम अन्तः पुर नहीं बन गए हैं ;जो मुझ जैसे साधारण से आदमी को दीखता है क्या आपको नज़र नहीं आता ?

शंकराचार्यों ने कभी इस बात का विरोध क्यों नहीं किया कि रातों रात सैंकड़ों फ़र्ज़ी और अनपढ़ लोग बाबा बनकर लोगो को ना सिर्फ गुमराह कर रहे है बल्कि टी वी चैनलों की मदद से भोली भाली जनता को जमकर ठग और लूट रहे हैं। हमारे धार्मिक विश्वासों के लिए वास्तविक दीमकें यहीं हैं। ये सबसे ज़्यादा बेडा गर्क कर रहे हैं। क्यों आज भी हज़ारों मंदिरों में पूजा के लिए लोगों के साथ भेद भाव किया जाता है। दक्षिण के अनेक मंदिरों में आज भी स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। जब वेद ईश्वरीय वाणी है तो क्यों आज आधुनिक हिंदुस्तान में भी करोड़ों -करोड़ दलित और शूद्र उसको सुनने से वंचित कर दिए जाते हैं। हिन्दू धर्म को किसी से खतरा नहीं है ना ही कोई उसे मिटाने की कोई कुव्वत रखता है ,असली खतरा है तो इन स्वार्थी धर्माचार्यों से। इतिहास गवाह है इन्हीं लोगों की करतूतों के चलते हिन्दुओं का पतन हुआ है। सड़ी गली परम्पराओं से बाहर निकालिये आज का युवा एक साफ़ सुथरी आबो हवा में सांस लेना चाहता है उसे बरगलायिये मत। धर्म हो या कर्म सभी में आज एक नूतन परिष्कार की ज़रुरत है। अपने घर को मज़बूत कीजिये खिड़की-जंगले खुले रखिये दिमाग के भी और धर्म रुपी घर के भी यही हमारी शास्वत सनातन परम्परा भी रही है। तभी एक नूतन और स्वर्णिम वातावरण में धार्मिक आस्थाएं फले फूलेंगीं ;अस्तु !

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