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एक थे हफ़ीज़ मेरठी

SHABDARCHAN
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(जयंती 10 जनवरी पर खिराज़े अक़ीदत)

ऐसा बहुत कम होता है कि एक उम्दा फ़नकार एक बेहतरीन इंसान भी हो ! और जब कभी ऐसा सुखद संयोग घटित हो जाता है, तो ऐसे व्यक्तित्व का नाम दिलों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाता है। मैं याद कर रहा हूँ शायरे हिन्द हज़रत हफ़ीज़ मेरठी को ; जो जितने मक़बूल शायर थे उससे कहीं ऊँचे इंसान। मेरठ शहर को शायरी के आसमान पर एक बुलंद आवाज़ देने वाले हफ़ीज़ मेरठी अदब की ज़मानत थे। खुद्दारी और मिलनसारी की मिसाल हफ़ीज़ मेरठी सदियों तक लोगों के ज़ेहन में शब्द बनकर कौंधते रहेंगे। अपने क्रांतिकारी तरानों के ज़रिये ब्रिटिश हुक्कामों के लिए रोज़ाना एक नई मुसीबत खड़ी करे रखने वाले हफ़ीज़ भारतीय शायरी का वो पन्ना हैं जिसके बिना ख़ूबसूरत इबारतों की ये क़िताब मुकम्मल नहीं कही जा सकती।
हज़ारों मुशायरे आज भी उर्दू तहज़ीब की गँगा – जमुना बहाने वाले इस आलातरीन फ़नकार के एहसानमंद हैं ;क्योंकि इस शख़्स की मौज़ूदगी भर ने उन्हें एक नईं ज़िन्दगी बख्शी है।
मेरठ के मौहल्ला पूर्वा शेखलाल निवासी हक़ीम मोहम्मद इब्राहीम और फ़ातिमा बेग़म के घर 10 जनवरी 1922 को एक चराग़ रोशन हुआ। नाना ने नाम रखा हफीज़ुर्रहमान प्यार से कहा गया हफ़ीज़।बड़े होने पर शायरी का शौक चर्राया तो तखल्लुस रखा ‘मेरठी’ ! हफ़ीज़ मेरठी के रूप में बग़ावती तेवरों के साथ शायरी के मैदान में कूद पड़े। ईनाम में अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया। कलम वहाँ भी नहीं रुकी-
‘हर ज़ालिम से टक्कर ली है सच्चे फ़नकारों ने हफ़ीज़,
हम वो नहीं जो ड़र के कह दें, हम हैं ताबेदारों में।’
महात्मा गाँधी का असहयोग आंदोलन पूरे राष्ट्र की आवाज़ बन चुका था। मेरठ के फैज़ -ए -आम इंटर कॉलेज में देशभक्तों के एक जलसे में अपने क्रांतिकारी शेर सुनाने पहुँचे युवक हफ़ीज़ मेरठी पर तब तक लाठियाँ बरसाईं गईं, जब तक वो बेहोश नहीं हो गये। एक हफ़्ते बाद मेरठ के तत्कालीन अंग्रेज़ कमिश्नर के सामने हफ़ीज़ को पेश किया गया। कमिश्नर ने पूछा आपको अपनी सफाई में कुछ कहना है , हफ़ीज़ कहाँ चूकने वाले थे वहाँ भी शुरू हो गये –
‘जब सब के लब सिल जायेंगे ,हाथों से क़लम छिन जायेंगे
क़ातिल से लोहा लेने का ऐलान करेंगी जंज़ीरें।
गूंगों -बहरों की नगरी में यूँ कौन तवज़्ज़ो करता है ?
माहौल सुनेगा-देखेगा जिस वक़्त बजेंगी जंज़ीरें।’

मेरठ के नाम का परचम पूरी दुनिया में फहराने वाले शायरे इंक़लाब हफ़ीज़ मेरठी के फ़न के बाक़ी रंग भी मोहताज़ ए तआरुफ़ नहीं हैं। सामाजिकता की कसक भी स्याही बनकर काग़ज़ पर सँवरती रही –
‘कैसी भी मुसीबत हो बड़े शौक से आये
कमज़र्फ़ के एहसान से अल्लाह बचाये। ‘

देश के बँटवारे के दर्द की टीस उनके लफ़्ज़ों पर छपी नतीज़तन हफ़ीज़ कहे बिना न रह सके –
‘ख़ून इस दौरे-गरानी में बहुत सस्ता है
रात फिर गाँव में एक क़त्ल हुआ पानी पर,
झील में डूब गया जान से बेज़ार बदन
तैरता रह गया मिट्टी का घड़ा पानी पर।’
उनके लफ़्ज़ों की हवा ने लोगों को सबक़ देने की कोशिश की तो उस समय के नेताओं को नसीहत भी –
‘ख़ुदग़र्ज़ियों की आग़ यहाँ तक पहुँच गयी
एहले वतन की जद पे है अब खुद वतन का हुस्न,
नाअहलियों के दाग़ लिए है रबिश- रबिश
माली ने खुद तबाह किया है चमन का हुस्न।’
उर्दू शायरी के बेताज बादशाह हफ़ीज़ मेरठी का फ़न एक ओर जहाँ समाज के ऊँचें तबके को आईना दिखाता है ,वहीँ वो रोज़मर्रा की दिक्कतों से दो चार हो रहे आमजन की पीड़ा को भी मुखर करता है। ज़िंदगी के सभी पहलुओं को मुक़ददस संज़ीदगी से जीने वाले हफ़ीज़ मेरठी को कलक्ट्रेट में क्लर्क की नौकरी मिली। पर जिस सरकार में वो मुलाज़िम थे उसे भी नहीं बख़्शा। नतीज़ा नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा।बाद में काशीनाथ वकील के यहाँ उन्होंने मुंशी के रूप में काफी समय तक काम किया। 1942 में शायरा बेगम से उनका निकाह हुआ। बार बार जेल जाने के कारण और ठीक से देखभाल के अभाव में उनके उनके एक साल के बेटे की मृत्यु हो गयी।मुफ़लिसी और तंगहाली में उनकी पत्नी का 1950 में इंतकाल हो गया। सरधना निवासी फ़हमीदा बेगम से उनका दूसरा निकाह हुआ उनका कुछ समय बाद क़त्ल कर दिया गया।
हफ़ीज़ मेरठी के पुराने रिसालों पर आधारित ग़ज़लों की एक किताब ‘शेर ओ शऊर’ 1970 में प्रकाशित हुई थी। उनका एक दीवान ‘मता ए आख़िरी शब’ 1987 में छपा। इसे उर्दू एकेडेमी ने प्रथम पुरस्कार से नवाज़ा था। उनका एक ग़ज़ल संग्रह ‘गहराईयाँ’ 1998 में प्रकाशित हुआ।
व्यक्ति के न्यस्त स्वार्थों पर भी उन्होंने गहरी चोट की। कमोबेश समाज की सभी बुराईयों पर उनकी कलम चलती रही-
‘बस यही दौड़ है इस दौर के इंसानों की
तेरी दीवार से ऊँची मेरी दीवार बने ,
गैर से छीनकर अपनों ने मुझे क़त्ल किया
आप ही ढ़ाल बने आप ही तलवार बने।’
हफ़ीज़ साहब ने उर्दू अदब को पुरवक़ार करने के लिए सऊदी अरब, शारजहां, ईरान, इंग्लैंड, अमेरिका,पाकिस्तान, बांग्लादेश, और ताइवान की यात्राएं कीं। 1993 में उनकी पुस्तक ‘हफ़ीज़ मेरठी :फ़न और शख़्सियत’ को अकादमी अवार्ड मिला। हफ़ीज़ दा के शेरों में बला का तगज्जुल है। उनके अदब की शाइस्तगी और पाक़ीज़गी का यह आलम है कि गैर मैयारी और गैर शरीफ़ाना लफ़्ज़ों से तो वो पहलू बचाते ही हैं ,तंज़ो -तारीज़ में भी बेलगाम नहीं हो जाते।
‘नहीं होती कभी साहिल के अरमानों से बावस्ता
हमारी कश्तियाँ रहती हैं तूफानों से बावस्ता ,
मैं यूँ रहजन के बदले पासवां पर वार करता हूँ
मेरे घर की तबाही है निगहबानों से बावस्ता। ‘
आजकल के शायर और कवि छोटी मोटी मदद और पद की दौड़ में जहाँ नेताओं की जी हज़ूरी करते नज़र आते हैं वहीँ हफ़ीज़ मेरठी खुद्दारी और स्वाभिमान की ज़िंदा मिसाल थे। किराये के घर में पूरा जीवन बसर करने वाले हफ़ीज़ की माली हालत को देख एक बार ज़िला प्रशासन ने उन्हें एक लाख रूपये की राशि देनी चाही। जो व्यक्ति यह प्रस्ताव लेकर हफ़ीज़ के घर गया था ,उसने कहा कि सरकार आपको इमदाद देना चाहती है। बस फिर क्या था अत्यंत ग़रीबी में जीवन काट रहे हफ़ीज़ साहब बिफर गए। पूरा मेरठ गवाह है कि इस रकम को देने के लिए तत्कालीन प्रशासन को नाकों चने चबाने पड़े। एक सार्वजनिक सम्मान समारोह आयोजित करके पूरे शहर के सामने घुटनों के बल बैठकर हफ़ीज़ साहब को एक पुरस्कार के रूप में यह राशि दी जा सकी थी।

हक़ीक़त बात यह है कि हफ़ीज़ सच्ची बात कहने का हौसला रखते थे। अपने इसी हौसले को जुनून की शक्ल देकर वे ताउम्र शब्दों की माला बुनते रहे। संज़ीदगी,मतानत और इस्तकामत की फ़ज़ां हफ़ीज़ साहब की शायरी का तुर्रा ए इम्तियाज़ है। इसमें उनके वाक्यों की बनावट में फ़िक्र की पुख़्तगी भी आती है और शऊर का बाँकपन भी।
‘शीशा टूटे गुल मच जाये
दिल टूटे आवाज़ ना आये ,
दुनिया का अपनाना ही क्या
काँटें अपने फूल पराये।’
हफ़ीज़ मेरठी अथाह तारीकियों में घिरकर भी ये नहीं भूले कि वे नूर के सफ़ीर हैं। चुनाँचें उन्होंने अपने ज़ख्मों को पहले फूल बनाया और फिर फ़ूलों के चराग़ बनाये।
‘हमारी क़द्र करो चौदहवीं के चाँद है हम
खुद अपने दाग़ दिखाने को रौशनी की है।’
1975 में इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी का एलान किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होने लगे। बड़े -बड़े अलंबरदारों की कलमें जब सहम कर दुबकी पड़ी थीं तो ये हफ़ीज़ मेरठी ही थे जो गरजकर बरसते रहे। उनकी एक नज़्म पर उन्हें मीसा में जेल में डाल दिया गया। नज़्म थी –
‘आज कुछ ऐसा तय पाया है हक़ के ईज़ारादारों में
हम पर जो ईमान ना लाये चिनवा दो दीवारों में ,
सूरज को दो देश निकाला दिन का किस्सा पाक़ करो
बनते हैं ऐसे मंसूबे रात के रिश्तेदारों में।’
मेरठ समेत देश के सभी हिस्सों में जब सांप्रदायिक तनाव चरम पर था। तब भी हफ़ीज़ सबकी सलामती का सदका करते रहे।
‘आंसुओं से कब बुझेगी दोस्तों दिल की लगी
और भी पानी के छींटों से भड़क जाती है आग़
पासबां आँख मले,अंगड़ाई ले आवाज़ दे
इतने अर्से में तो अपना काम कर जाती है आग़।’

जिन्हें हम अपने सबसे अज़ीज़ और निकटतम व्यक्ति मानते हैं वे भी कईं बार ईर्ष्या ,द्वेष और मुक़ाबलेबाज़ी में अपने निचले स्तर पर उत्तर आते हैं ,ऐसे ही किसी अनुभव से दो चार होते हुए हफ़ीज़ मेरठी ने लिखा –
‘कहा ना था कि नवाज़ेगें हम हफ़ीज़ तुझे
उड़ाके वो मेरे दामन की धज्जियाँ बोला।’
हफ़ीज़ साहब के ऊपर क्षेत्रीय मीडिया द्वारा एक वृत्तचित्र का निर्माण वर्ष 2000 में किया गया। शिवाजी मार्ग चौराहे से सूरजकुंड चौराहे तक का नाम उनके नाम पर हफ़ीज़ मेरठी मार्ग किया जा चुका है। 8 जनवरी सन 2000 को उन्होंने अंतिम सांस ली। मेरठ की मिट्टी में अपने लोगों के लिए नाशुक्री का भाव है। अपने लोगों की शिनाख्त को देर से पहचानने का दोष भी। उनके भावों और संदेशों को आत्मसात करके ही हम हफ़ीज़ साहब को सच्ची खिराज़े अक़ीदत पेश कर सकते हैं।
उन्हीं के शब्दों में –
मयारे ज़िंदगी को उठाने के शौक में
किरदार पस्तियों से भी नीचे गिरा दिया
ये भी तो सोचिये कभी तन्हाई में ज़रा
दुनिया से हमने क्या लिया दुनिया को क्या दिया ?’

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