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प्रवासी भारतीयों की समृद्ध विरासत : भाषायी विश्वास

SHABDARCHAN
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प्रवासी भारतीय आज सकल विश्व में प्रतिष्ठित हैं। भारतीय परम्परा और संस्कृति के ये प्रतिनिधि अनेक वर्षों के उपरान्त भी अपनी जड़ों से गहरे जुड़े हैं। इन सभी को गहरे तलों तक जोड़े रखने में भाषायी विश्वासों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है।जहाँ -जहाँ भारतीय गये वहाँ -वहाँ उनकी आत्मरूप हिंदी भाषा भी चली गई। विदेशों में आवासित भारतीय बहुत गर्व और संस्कार के साथ अपनी जड़ों से आबद्ध हैं। भारत की मातृ भाषा हिंदी के अलावा बोलियों के प्रति अनुराग और स्नेह की वहां पराकाष्ठा है।
प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी दिवस महोत्सव गुजरात के गांधीनगर में संपन्न हो चुका है।वैसे तो इस त्रिदिवसीय समारोह की आप्रवासी भारतीयों को वर्ष पर्यन्त प्रतीक्षा रहती है लेकिन इस वर्ष यह महोत्सव कईं मायनों में खास रहा है। यह आयोजन दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गाँधी के स्वदेश लौटने के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य को समर्पित था। गाँधी जी 9 जनवरी 1915 को भारत वापस लौटे थे।इसकी विशेषता के अन्य कारणों में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत रूचि भी रही है। इस महोत्सव का मुख्य आधार भारत, भारतीयता, भारतीय मान्यताएं,संस्कृति और संस्कार सुनिश्चित किया गया था। यहीं नहीं विदेशों में स्थापित युवा भारतीयों की प्रबल भागीदारी भी इस बार पूरे जोशो खरोश में दिखाई दी ।
एक बार एक व्यक्ति किसी मूर्तिकार के पास यह देखने गया था कि मूर्ति कैसे बनाई जाती है। उसने देखा कि मूर्तिकार छैनी और हथौड़े से पत्थर को तोड़ रहा है।काफी देर देखते रहने के बाद उसका धैर्य जवाब दे गया। उसने मूर्तिकार से पूछा ये आप क्या कर रहे हैं ? मैं मूर्ति का बनना देखने आया हूँ ; मूर्ति नहीं बनायेंगे ?
मूर्तिकार ने जवाब दिया -‘मूर्ति के ऊपर जो व्यर्थ पत्थर लगा है ,उसे अलग कर देने की ज़रूरत है। मूर्ति प्रकट हो जायेगी। मूर्ति निर्मित नहीं होती अनावृत्त होती है ,उघाड़ी जाती है,डिस्कवर होती है, बनाई नहीं जाती !’
प्रायः यही बात हमारी भाषा के सन्दर्भ में भी लागू होती है। जब हमारा ऊपरी कृत्रिम आवरण हट जाता है तब हमारी वास्तविक भाषा प्रकट हो जाती है। हिंदी भाषा के प्रति हमारे भीतर छिपा वास्तविक विश्वास हमारी सहज अवस्था में स्वतः ही प्रकट हो जाता है।
लोकसभा में विदेशी भारतीय मामलों तथा विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के.सिंह के अनुसार मई 2012 में जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार 22 मिलियन प्रवासी भारतीय है, जिसमें से 10 मिलियन अप्रवासी भारतीय(एनआरआई) और शेष भारतीय मूल के व्यक्ति (पीआईओ) हैं।यही नहीं 8 दिसंबर, 2014 तक 27,606 ओसीआई आवेदनों का पंजीकरण लंबित था। विदेशों में प्रवासित भारतीयों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। विदेश मंत्रालय के अनुसार लन्दन में 299289, न्यूयॉर्क में 191914, शिकागो में 89099, मेलबर्न में 56013 ,पेरिस में 38947 तथा सिंगापुर में 26439 ओ.सी.आई. पंजीकृत हैं। लगभग पूरी दुनिया के समस्त बड़े शहरों में प्रवासी भारतीयों के नाम और काम की ध्वजा लहरा रही है।

मैंने मॉरीशस, केपटाउन, फिजी और युगांडा के अनेक प्रवासी भारतीयों को देखा है जो भाषायी विश्वासों के साथ बहुत गहरे तलों तक सम्बद्ध हैं। कमोबेश पूरी दुनिया की यही तस्वीर है। अपनी मातृसत्ता के प्रति गहरे अनुराग का बोध उन्हें यहाँ की सभ्यता और संस्कृति से जोड़े रखता है। सभी जानते हैं कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी मातृभाषा में ही अपने सार्वजनिक उद्बोधन देते हैं ;यही वजह है कि पिछले महीनों में उनकी जितनी भी विदेश यात्राएं हुईं उनमें प्रवासी भारतीयों ने अपनी अभूतपूर्व उपस्थिति दर्ज की। हम अंग्रेजों जितनी अंग्रेजी शायद ही कभी बोल सकें और हमारे जैसी हिंदी कोई अंग्रेज कभी भी नहीं बोल सकता। अपनी भाषा में अपनी बात को कहने के प्रभाव ने मोदी का सिक्का दुनिया भर में चला दिया। जब भी कोई भारतीय विदेश जाता है तो वहाँ बसने वाले भारतीय उनसे कहते हैं -ये अंग्रेजी की गिटर-पिटर तो हम रोज़ सुनते हैं आज तो अपनी भाषा बतियाओ !
धार्मिक स्थलों और सामाजिक कार्यों में सक्रिय लोगों में व्यवहार की भाषा प्रायः हिंदी या अपनी मातृ बोली ही हैं। इससे एक तथ्य यह भी सुनिश्चित होता है कि हमारे अपने जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है अथवा जो भी सर्वोच्च मूल्यवान है वह हम अपनी भाषा में ही अभिव्यक्त कर पाते हैं। मोहन दास करमचंद बैरिस्टरी करने अफ्रीका पहुंचे थे लेकिन भेदभाव की एक घटना के गहरे आघात ने उन्हें गाँधी बनाकर भारत भेजा।इसी गाँधी ने भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान को बदल कर रख दिया। भारतीय मूल के व्यक्तियों का वर्चस्व आज समूचे विश्व में विद्यमान है ,यदि हम अकेले अफ्रीका महाद्वीप की ही बात करें तो वहां भारतीय मूल की आबादी लगभग 17 लाख है। मूलतः गिरमिटया मज़दूर के रूप में ये भारतीय 18 वीं शताब्दी के तीसरे -चौथे दशक में वहां बसने शुरू हो गए थे। यह सिलसिला 20 वीं शताब्दी के प्राथमिक दशकों तक जारी रहा। बहुत छिट-पुट रूप से यह आज भी जारी है। अब यह सामान्य अंतर्राष्ट्रीय आवा-जाही अथवा वैश्वीकरण का एक भाग बन चुका है। सर्वविदित है कि भारतीयों के विदेश प्रवास का तत्कालीन प्रवाह गन्ने की खेती के लिए कामगारों के रूप में हुआ था। विशेष रूप से हिंदी भाषी प्रवासी इसी वर्ग से हैं। दक्षिण अफ़्रीकी देशों में मॉरिशस, केन्या, तंजानिया, और मोजाम्बिक में रहने वाले भारतीय प्रवासियों का पहला प्यार आज भी हिंदी ही है।
भारत से लेकर यूरोप तक जिन भारतीय भाषाओँ का विस्तार हुआ है ,उनमें गहरी प्राथमिक समानताएं हैं। पतंजलि के अनेक शब्द जिनका संस्कृत भाषा से गहरा समन्वय है प्रवासियों के विश्वासों के आधार स्तम्भ हैं। इसका प्रारंभिक अनुभव उन बौद्ध भिक्षुओं को हुआ जो धर्म प्रचार के लिए सुदूरवर्ती देशों में गए। दूसरी बार इसकी ओर उन लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ जो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत और उसके समीपवर्ती देशों में आये। इसके प्रमाण ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ के संस्थापक सर विलियम जोंस के व्याख्यानों में मिलते हैं। संस्कृत के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उनका दृष्टिकोण देखने लायक है। यथा -‘संस्कृत भाषा की प्राचीनता कोई भी क्यों ना हो ;इसका विन्यास अद्भुत है। यह ग्रीक से अधिक अखोट, लातिन से ज़्यादा समृद्ध और इन दोनों में से किसी से भी अधिक सुपरिष्कृत है। हालाँकि इन दोनों भाषाओँ से संस्कृत धातुओं और व्याकरण के रूपों में जितनी निकट है ,वह मात्र संयोग नहीं हो सकता। यह निकटता इतनी गहरी है कि कोई भी भाषाविद् इनकी जाँच यह माने बिना कर ही नहीं सकता कि ये एक ही स्रोत से निकली हैं, जिस संस्कृत का अस्तित्व आज संदेह में है।’
इसी क्रम में उन्होंने यह भी सुझाया कि संभवतः ‘केल्ट’ और ‘गॉथिक’ भाषाओँ की उत्पत्ति भी संस्कृत से ही हुई है। यही नहीं प्राचीन फ़ारसी भी इसी परिवार की भाषा प्रतीत होती है। यही वह प्राथमिक संकेत स्रोत था जिसके बाद जर्मनी, फ़्रांस, ब्रिटेन आदि के भाषाशास्त्री उन प्रश्नों के उत्तर खोजने में जुट गये जिनसे लुप्त प्रायः भाषा के स्वरूप तथा उसकी जड़ों को तलाशा जा सकता था। साथ ही इन दिशाओं में भी खोज के मार्ग प्रशस्त हुए कि भाषा कहाँ और किन लोगों के मध्य व्यवहार का सेतु थी ? इस पर भी विमर्श किया जाने लगा कि ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं जिनके चलते वह इतने विराट क्षेत्र में विस्तीर्ण हुई।
यह तथ्य प्रारंभिक अध्ययनों में ही स्पष्ट हो गया था कि संस्कृत इन समस्त में सर्वाधिक प्राचीनतम है। संस्कृत के शब्द धातुवें ,रूपावली, वाक्यविन्यास, सभी पूरी तरह सुरक्षित हैं। जबकि यूरोप की भाषाओँ को समग्र पूंजी का एक लघु अंश ही प्राप्त हुआ है। यही नहीं जिन भाषाओँ को इस परिवार में शामिल किया जा सकता है ,उन सभी भाषाओँ से भी इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। अतः यह परस्पर दूर लगने वाली यूरोपीय भाषाओँ की आद्योपांत गुत्थियों को सुलझाने में भी समर्थ है।
विद्वान इस बात को लेकर काफी समय तक पशोपेश में रहे कि मूल भाषा या तो भारत में बोली जाती थी अन्यथा इसके आसपास !उन्हें लगता था कि मूल भाषा वैदिक से गहनता पूर्वक सम्बद्ध है। यह एक ऐसी सच्चाई थी जो नवोदित यूरोप के लिए एक कड़वा घूँट बनी रही। इसके प्रतिकार में यह भी प्रयत्न किये गए कि ‘वेदों’ की प्राचीनता को घटाकर इन्हें भारत से पृथक रचा हुआ सिद्ध कर दिया जाये।परन्तु इसके लिए एकत्रित तर्क अत्यंत लचर थे। कुछेक ने यह भी दावा किया कि वेद के पुराने अंश भारत के बाहर संस्कृत में नहीं ‘भारोपीय’ भाषा में रचे गये हैं और उसके बाद के खण्डों का निर्माण भारत में हुआ। दूसरे यह कि यूरोप की भाषाएं कुछ सन्दर्भों में संस्कृत की भी गुत्थियाँ सुलझा सकती है। पहला तर्क निराधार साबित हुआ जिसमें स्वार्थवश घालमेल किया गया था। दूसरा एकदम अस्तित्वविहीन था। क्योंकि भारतीय भाषा हिंदी वहां सबसे बड़ा सम्बल बनकर प्रकट हुई जो वैश्विक विस्तार का आधारबिंदु थी। यही नहीं भारतीय बोलियों में मिलने वाले शब्द और संस्कृत के तद्भव रूपों के आधार पर भी यही दावा अधिक औचित्यपूर्ण था कि सभी भाषाओं की गंगोत्री संस्कृत है। भारत ही क्यों यूरोप की अनेक बोलियों और भाषाओँ पर भी संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। तभी तो इस वर्ष में महोत्सव में जब भारतीय मूल की अमेरिकी सांसद बोलने खड़ी होती हैं तब संस्कृत के मंत्र का सहारा ही उनके भारतीय प्रवासी सम्बल का पर्याय सिद्ध होता है।

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