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आपदा प्रबंधन में निष्णात थे हनुमान

SHABDARCHAN
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भारतीय जनमानस की विचार गंगा रामायण के सर्वाधिक आकर्षक और शक्तिशाली पात्र वीर हनुमान वस्तुतः जीवन संग्राम में उपस्थित विभिन्न आपदाओं के कुशल और सक्षम निष्पादक थे। उन्होंने ‘भक्ति’ और ‘शक्ति’ के ऐसे अनेक उदाहरण जीवंत किये जिनसे अभिप्रेरित जनमानस सदियां व्यतीत होने के बाद भी आज तक अभिभूत है। दूसरे शब्दों में कहें तो हनुमान आपदा प्रबंधन में निष्णात थे। श्री राम के जीवन में जब कठिनाइयाँ और संघर्ष की तीव्रतम आँधियाँ चली तो ये हनुमान ही थे जिन्होंने अडिग रहते हुए न सिर्फ कठिन परिस्थितियों से श्री राम को उबरने में मदद की अपितु उनके स्थायी और प्रभावी हल भी सुझाये। हनुमान के समूचे जीवन चरित्र में आपको कहीं भी कुछ भी ऐसा देखने को नहीं मिलेगा जो मानवीय सरोकारों के विपरीत हो। अत्यंत योग्य और बुद्धिमान सेवक के रूप में श्री हनुमान का व्यक्तित्व और कृतित्व हमें प्रतिपल जीवन संघर्षों से उबरने के नए स्रोत और प्रभावी मार्ग सुझाता हुआ प्रतीत होता है।
चैत्र पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त में सुमेरु पर्वत के सम्राट वानरराज केसरी और अंजना के घर हनुमान के जन्म का वर्णन मिलता है।अनेक आदि ग्रंथों में हनुमान को भगवान शिव के 11 वें अवतार की संज्ञा दी गयी है। यही नहीं इस धरा पर जिन सप्त ऋषि आत्माओं को अमरत्व का वरदान मिला है ,उनमें हनुमान भी एक माने जाते हैं। हनुमान के गर्भ प्रसंग में वायु देव द्वारा दिव्य प्रसाद को माता अंजना तक हस्तांरित करने का उल्लेख मिलता है अतः उन्हें मारुति नंदन अथवा पवनपुत्र भी कहा जाता है। बाल्यकाल से ही हनुमान के अनेक प्रेरक किस्से सदियों से भारतीय जनमानस में ऊर्जा और आस्था का संचार करते रहे हैं।
सबसे अधिक रोचक और मेधावान चरित्र हनुमान के बिना रामायण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अनेक प्रसंगों में हनुमान द्वारा सफलतापूर्वक भेष बदलकर कार्य करने के वर्णन मिलते हैं। श्री राम से भी उन्होंने एक पुरोहित के वेश में ही सबसे पहले भेंट की थी। अतः अनेक विचारकों का मत है कि हनुमान वानर नहीं हो सकते। सीता की खोज के समय छदम वेश अर्थात वानर के रूप में उन्होंने लंका में प्रवेश किया था। लंका का प्रकरण ,वहां रावण से वार्तालाप और अशोक वाटिका में की गयीं उनकी गतिविधियाँ जिनमें बाद में लंका दहन भी शामिल है इतने लोकप्रिय प्रसंग हैं कि उनके वर्णन के कारण ही उन्हें वानर मान लिया गया।संस्कृत भाषा में ‘हनु’ का शाब्दिक अभिप्रायः ‘ठोडी’ होता है। एक घटना में उनके ठोड़ी पर चोट का वर्णन मिलता है जिसके आधार पर उनका नाम हनुमान पड़ा।’वैदिक रामायण’ में भी उनके वानर होने पर संदेह व्यक्त किया गया है। इसी का जीता जागता उदाहरण है विराट नगर (राजस्थान) में स्थापित पंचखंडपीठ स्थित ‘वज्रांग मन्दिर’। गोभक्त महात्मा रामचन्द्र वीर ने समूचे भारत में विश्व का सबसे अलग मंदिर स्थापित किया, जिसमे हनुमान की बिना बन्दर वाले मुख की मूर्ति स्थापित है। उनका कहना है कि हनुमान की जाति वानर थी,शरीर नहीं| उनका मंतव्य है कि सीता की खोज करने वाले और वेद के ज्ञाता विद्वान हनुमान बन्दर कैसे हो सकते हैं ?
योग्य और ज़िम्मेदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह जिससे संबद्ध है उसके हित हेतु चिंतन करे। आवश्यकता पड़ने पर स्वामी पर आये संकट में अपना अतिशय योगदान देकर उसे इससे उबारे। ऐसे प्रसंगों में हनुमान सबसे अग्रणी दिखाई देते हैं। गुणवाचक आधार पर रामायण में मनुष्य को तीन श्रेणियों में विभाजित करके देखा गया है। उत्तम,मध्यम और अधम ! यहाँ हनुमान सबसे अग्रज हैं। यथा –
‘तन्नियोगे नियुक्तेन कृत्यं हनूमता।
न चात्मा लघुताम् नीतं सुग्रीवश्चापि तोषितः।।’
(रामायण / 6 / 1/10 )
हनुमान ने अपने स्वामी के कार्य में नियुक्त होकर उसके साथ ही दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों को भी पूरा किया। अपनी सूझ-बूझ और चातुर्य से हनुमान ने अपने स्वामी के गौरव को तो अक्षुण्ण रखा ही बेहद चतुराई से अपने स्वाभिमान की भी रक्षा की। दूसरों की दृष्टि में स्वयं को भी छोटा नहीं होने दिया और अपने स्वामी सुग्रीव को भी संतुष्ट कर दिया।
श्री राम अपनी प्रथम भेंट में ही हनुमान की वाक्क्षमता से प्रभावित हो जाते हैं। वे लक्ष्मण से कहते हैं –
‘नानृग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेव विभाषितुम्।।
नूनं व्याकरणम् कृत्स्नमनेन बहुदा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिद पशब्दितम्।।
‘(रामायण 4/28/29)
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली,जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है ;वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्त्तालाप नहीं कर सकता ? निश्चय ही हनुमान संस्कृत और व्याकरण के परम ज्ञाता हैं। क्योंकि बहुत सी बातें बहुत बार बोले जाने के उपरान्त भी इनके मुँह से कोई अशुद्धि नहीं निकली।

वर्तमान में बड़े बड़े पदों पर विराजमान महानुभाव और उनके सहयोगी बार -बार एक जैसी आपदाएं आने पर भी उनका समुचित निदान नहीं खोज पाते ;जबकि हनुमान ने अभूतपूर्व परिस्थितियों पर न सिर्फ विजय प्राप्त की अपितु संगी साथियों को सुरक्षित रखने में महान योगदान भी दिया। हनुमान के जीवन चरित में बुद्धिमत्ता ,पराक्रम ,सेवा ,त्याग और सामर्थ्य के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। सीता जी की खोज के लिए योग्य व्यक्ति की शक्ति और सामर्थ्य का आंकलन करते समय सुग्रीव को हनुमान ही सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं। सुग्रीव हनुमान में शक्ति, तीव्रता, भौगोलिक समझ तथा व्यवहारकुशलता के गुण देखकर ही उन्हें इस कार्य की ज़िम्मेदारी देते हैं।हनुमान की कर्तव्यपरायणता ,दूरदर्शिता और स्वामीभक्ति के गुणों पर चर्चा करते हुए सुग्रीव कहते हैं –
‘त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धिः पराक्रमः।
देशकालानुवृत्तिश्च न्यश्च नय पण्डितः।।’
(रामायण /4/44/7)

हनुमान विश्वास के रक्षक हैं। प्रत्येक परिस्थितियों में भी लक्ष्य पर कैसे नज़र रखी जाये यह उनके कार्यों से सीखा जा सकता है। हनुमान के ऋष्यमूक से प्रस्थान के समय श्रीराम के उदगार देखने योग्य हैं –
‘अतिबल बलमाश्रितस्तवाहम् हरिवर विक्रम विक्रमैरनलपैः।
पवनसुत यथाधिगम्यते सा जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व।।’
(रामायण 4/44/17)
हे हनुमान मैंने तुम्हारे बल और बुद्धि का आश्रय लिया है। जिस प्रकार भी हो सके जनकनन्दिनी सीता को प्राप्त करने में मेरी सहायता करो।मैं तुम्हें तुम्हारे महान बल -विक्रम को प्रयुक्त करने की स्वतंत्रता देता हूँ। इतने से भावनात्मक सन्देश को अपने कार्य लक्ष्य का महामंत्र मानकर दूत बने हनुमान ने श्री राम के कार्य को सफलता के शिखर तक पहुँचाया।
सीता से भेंट होने पर संदेह को कैसे निर्मूल किया जा सकता है इसका निराकरण भी हनुमान स्वयं ही करते हैं। उनके ही सुझाव पर श्री राम उन्हें विवाह के समय प्रदत्त स्वर्ण मुद्रिका प्रदान करते है। जिसके प्रदर्शन पर ही वे अपरिचित सीता का विश्वास अर्जित करने में सफल रहते हैं। सीता से भेंट के उपरान्त हनुमान उतावले और अधीर होकर राम को सूचना देने नहीं निकल पड़ते अपितु शत्रु पक्ष की अनेकानेक बारीकियों को सूक्ष्मतापूर्वक समझने के लिए रावण से मिलना भी उचित समझते हैं। वे अपनी प्रत्युत्पन्नमति के अनुसार प्रमदावन का विध्वंश करते हैं। आतंक फैलाकर शत्रु पक्ष के मनोबल को क्षीण करते हैं और कूटनीति का परिचय देते हुए यह तथ्य सार्वजनिक कर देते हैं कि सीता कहाँ हैं और उनके गायब होने का वास्तविक रहस्य क्या है।
हनुमान परम सिद्धियों के ज्ञाता हैं और शक्तियों के सम्मान का महत्व समझते हैं। तभी तो वे दस महाविद्द्यायों में से एक ‘बगलामुखी देवी’ के साधक इंद्रजीत द्वारा फेंकी गई पाश को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं और बंन्धनयुक्त होकर रावण के साक्षात्कार को प्रस्तुत होते हैं। अपनी इस सूझ-बूझ से हनुमान लंका , रावण , रावण के राजभवन ,सैन्यबल और मंत्रियों आदि की विधिवत जानकारी जुटाते हैं। हनुमान एक कुशल राजदूत के दायित्व का भली भांति निर्वहन करते हैं। हनुमान दुष्ट और अहंमन्यता के शिकार रावण को शिष्टता की ओर प्रेरित करने वाला हितबोध कराकर उसे संभलने और सुधरने का एक अवसर प्रदान करते हैं।
हनुमान की स्वामिभक्ति और आपद काल में निर्णय की क्षमता का पता इस श्लोक से चलता है –
‘सर्वषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहम् युधि।
किं तु रामस्य प्रीत्यर्थं विषहिष्येsहमीदृशम्।
लँका चारयित्वा में पुनरेव भवेदिति।
रात्रौ नहि सुदृष्टा मे दुर्गकर्म विधानतः।।
(रामायण/5/53/13,14)

मैं युद्ध स्थल में अकेला ही इन समस्त राक्षसों का संहार करने में पूर्णतः समर्थ हूँ, किन्तु इस समय श्री राम की प्रसन्नता के लिए मैं इस बंधन को चुपचाप वरण करता हूँ। ऐसा करने से मुझे पुनः समूची लंका में विचरने और उसके सूक्ष्म निरीक्षण करने में मदद मिलेगी। रात्रि काल में भ्रमण के कारण मैं दुर्ग संरचना की विधि और प्रकार को नहीं देख सका हूँ ,प्रातः काल होने पर यह कार्य अच्छी प्रकार हो सकेगा। इसके लिए भले ही मुझे ये राक्षस बार -बार बांधे या फिर मेरी पूँछ में आग ही क्यों न लगाएं !
नीति का नियम है कि दुष्ट के सम्मुख शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए। यही हनुमान करते हैं। वे रावण और लंका के निवासियों को भयभीत करने के लिए अपने ही ऊपर किये गए प्रहार को शस्त्र बना लेते हैं। पूरी लंका को अग्नि के हवाले करके हनुमान समुद्र लांघकर वापस श्री राम को समस्त समाचार प्रदान करते हैं। सीता जी के वास्तविक जीवन और दशा का वर्णन करके वे समस्त वानर सेना को लंका पर आक्रमण हेतु उत्प्रेरित करते हैं। सीता की क्षेम सूचना से श्री राम को संतोष देते हैं और आशान्वित करते हैं। यही नहीं वे सुग्रीव और जामवंत के साथ मिलकर साथियों की भूमिका और रण क्षेत्र के स्वरुप को भी सुनिश्चित करते हैं। हनुमान की राजनीतिक सूझ बूझ, अंतर्दृष्टि और बुद्धिमत्ता पर श्री राम को पूर्ण भरोसा है, तभी तो जब विभीषण शरणागत होकर राम से मिलते हैं तब सुग्रीव सहित सभी के विरोध के बावजूद हनुमान उन्हें अपनाने का मत व्यक्त करते हैं। यही निर्णय युद्ध के अंतिम दौर में सर्वाधिक निर्णायक सिद्ध होता है जब विभीषण श्री राम को रावण वध के लिए उसकी नाभि में अमृत होने का तथ्य प्रकट करता है।
हनुमान को संकट मोचक इसीलिए कहा गया कि वे सभी आफतों और विपत्तियों से उबारने वाले हैं।यही वज़ह है कि जब श्री कृष्ण महाभारत में युद्ध के लिए मैदान में उतरते हैं, तो उससे पूर्व अर्जुन को रथपर हनुमत ध्वजा लगाने का परामर्श देते हैं। हनुमान सदा सफल है। मेघनाथ के शक्ति प्रहार से मूर्छित लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा हो या समुद्र पर सेतु का निर्माण सभी संकटों में हनुमान का अतिशय योगदान देखने को मिलता है ,उनका सानिध्य-साथ विजय का मार्ग प्रशस्त करता है। आज पूरी दुनिया में जितने हनुमान के मंदिर हैं, उतने उनके आराध्य श्री राम के भी नहीं।

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