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अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि शंकराचार्य

SHABDARCHAN
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जयंती 23 अप्रैल पर विशेष
भारतीय हिंदुत्व की धारा के प्राणतत्व हैं शंकर। जिस समय भारतीयता और हिंदुत्व की जड़ें चरमरा रही थीं , तब शंकर का इस पुण्यभूमि पर प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सुप्तप्रायः धार्मिक परिवेश में नूतनतम और सर्वाधिक मूल्यवान सिद्धांतों का सृजन किया। सदियाँ बीत गईं परन्तु आज भी जब कभी धर्म के पर्वत शिखरों पर मान्यताओं के स्वर्ण कलश प्रतिष्ठापित किये जाते हैं ; शंकर स्वयंमेव प्रासंगिक हो उठते हैं।आदि शंकराचार्य भारत की पहचान हैं ,भारतीयता की देशना हैं और समग्र विश्व के लिए सात्विक कुंजियों के संदेशवाहक हैं। तभी तो उन्हें जगद्गुरु कहा गया ; अर्थात सम्पूर्ण विश्व के लिए के लिए ज्ञान के पुंज। शंकर मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में जितना कुछ कर गुजरे, उसके लिए कईं जन्म भी कम पड़ते हैं। आध्यात्मिक जगत आज जिस अद्वैत वेदांत के स्वर्ण स्तम्भों पर विराजमान है; उसके पाये आदि शंकर की मौलिक चेतना की भावभूमि पर टिके हैं।
दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक गाँव है – काल्टी। वहां एक नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में शिवगुरु नामपुद्रि और विशिष्टा देवी के घर बैसाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को 788 ईस्वी में शंकर के जन्म का उल्लेख मिलता है। हालाँकि उनके जन्म के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं तथापि यही वर्ष उनके जीवन जन्म का सर्वाधिक तथ्यात्मक वर्ष भी जान पड़ता है।धरा पर अवतरित होने वाली महान विभूतियों के लक्षण भी प्रायः विशिष्ट ही हुआ करते हैं शंकर भी अछूते न थे। उनके कृत्य देखकर माता-पिता को लगता क़ि जैसे उन्हें अपने इस जीवन के समस्त उद्देश्यों और लक्ष्यों का सुस्पष्ट भान है।आठ वर्ष के होते – होते उन्होंने चारों वेदों को कण्ठाग्र कर लिया था।शकर की अद्वितीय प्रतिभा और प्रज्ञा की पुलक उनके सब कामों में दीखती थी। बाल्यकाल में ही उन्होंने ‘नीर क्षीर विवेक’ का दृष्टान्त प्रस्तुत किया। संसार के क्षणिक प्रलोभनों की स्वर्णिम पाश को तोड़ ये वीतराग सन्यासी दिव्य मार्ग की ओर प्रशस्त हुए।उन्होंने संन्यास का वरण किया।
मुमुक्षा की अग्नि शंकर के अंतस्थल में प्रदीप्त थी। वे सत्य के अनुसन्धान में सतत सक्रिय रहे।उन्होंने अपने ग्रंथों में स्वयं को गोविन्द के शिष्य के रूप में निरूपित किया है।जिस समय शंकर ने अपनी आध्यत्मिक यात्राओं का श्रीगणेश किया, तब भारत अनेक धार्मिक प्रभावों और मतों के बीच संघर्षरत था। दक्षिण भारत में बौद्ध देशना रुग्णता को प्राप्त हो चुकी थी जबकि वैदिक धर्म अपने बाह्य आडम्बरों और संकीर्ण क्रियाकलापों के तले दबा सिसकता सा प्रतीत हो रहा था। शैवमतावलम्बी भक्तों का एक बड़ा खेमा ‘अटियार’ तथा ‘वैष्णवमतावलम्बी ‘आलवार’ ईश्वर भक्ति के प्रचार में संलग्न थे। दक्षिण भारत का तात्कालीन पल्लव साम्राज्य आदर्श अवस्था में था। धार्मिक जाग्रति के कार्यकलाप राज्य शासन व्यवस्था के अनिवार्य अंग थे। बौद्ध दर्शन की गूँज हर ओर थी। उत्तर भारत भगवान बुद्ध की देशनाओं से अनुप्राणित हो रहा था। बौद्ध धर्म की त्यागपरक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में ईश्वरवाद की भक्तिमूलक अवधारणा ने बल पकड़ा। विद्वान कुमारिल तथा आचार्य मंडन मिश्र ने कर्मकांड की सहोदरी के रूप में मुक्ति मार्ग की नईं व्यवस्थाएं प्रकट कीं।
उन्हें आदि शंकराचार्य के रूप में मान्यता मिली। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। ‘स्मार्त संप्रदाय’ में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना गया है। इन्होंने ‘ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य,ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखे। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। इन पीठों का आधार चार वेदों को बनाया गया। इन चार प्रमुख धार्मिक मठों में दक्षिण की ‘शृंगेरी शंकराचार्यपीठ’,, पूर्व (ओडिशा)जगन्नाथपुरी में ‘गोवर्धनपीठ’, पश्चिम द्वारिका में ‘शारदामठ’ तथा उत्तर भारत के बद्रिकाश्रम में ‘ज्योतिर्पीठ’ आज भी भारतीय हिन्दू धर्म का प्राणबिन्दु हैं। अनेक भक्त लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका मठ को कालीमठ भी कहते है।
आदि शंकराचार्य के चिंतन में अपने समस्त पूर्ववर्ती दार्शनिक विचारों का सम्पुट है। उन्होंने श्रुतियों और उपनिषदों की परंपरागत चिंतन संपत्ति को अपने स्वाध्याय का आधार बनाया। उनकी सर्वाधिक मौलिक विशेषता यह है कि प्रथम वे सत्यदृष्टा बने तदोपरांत दार्शनिक ! यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी विचारक सत्य साक्षात्कार किये बिना सच्चे अर्थों में दार्शनिक नहीं कहा जा सकता। न ही उसके दार्शनिक सिद्धांत युक्तिपूर्ण और उपादेय ही सिद्ध हो सकते हैं। उन्हें समझने से पाश्चत्य विचारक हीगल के उस सिद्धांत की स्वतः ही प्रमाणिकता समाप्त हो जाती है जिसमें हीगल कहता है -‘प्रत्यय सतत विकासशील है , जो कालक्रम में जाकर पूर्णता को प्राप्त होता है।’ जबकि आदि शंकर उपनिषद की उस सर्वाधिक मौलिक उद्घोषणा की पुष्टि करते हैं जिसमे ऋषि कहता है -‘सत्य अपने प्रारम्भ से ही पूर्ण होता है। अर्थात इसके पूर्णत्व में न कभी घटाव होता है न ही कभी बढ़ोतरी।’ यथा –
‘ओउम पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिस्यते।।’
आदि शंकर ने जिस कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया वह व्यवहार और परमार्थ दोनों के लिए प्रासंगिक जान पड़ता है। उनकी अवधारणा है कि आत्म ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में निष्काम कर्म स्वयं फलित हो जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया की मलिन चित्त वाले व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की अनुभूति से वंचित रहते हैं। जबकि नित्य कर्म के अनुष्ठान में संलिप्त व्यक्ति चित्त शुद्धि को उपलब्ध होता है।जिससे जीव आत्मस्वरुप का बोध करता है। उन्होंने अपने भाष्य में स्पष्ट कहा है कि कर्म द्वारा संस्कारित होने पर ही विशुद्ध आत्मा अपने वास्तविक बोध का वरण करने की सामर्थ्य अर्जित करती है। उनका तर्क था कि ज्ञान की प्रभा से आलोकित व्यक्ति और हृदय अपनी देह का दुरुपयोग कर ही नहीं सकता। जैसा की वासनालिप्त व्यक्ति करता है। शंकर के अनुसार समग्र नैतिकता की जड़ें ज्ञान में ही प्रतिष्ठित हैं।
जहाँ भी जो भी श्रेष्ठतम था उसे आदि शंकराचार्य ने मुक्त हृदय से अंगीकार किया।उनके समय में कोई भी उनसे शास्त्रार्थ में जीत न सका था। अपने सत्यदर्शन ,अनुभूतिजन्य धर्म और तात्विक विश्लेषण से उन्होंने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। एक घटना में वाराणसी में उनके सामने एक चांडाल के आ जाने पर जब शंकर के शिष्यों ने चांडाल से रास्ता छोड़ने को कहा तो उसने प्रतिप्रश्न दागा -‘शंकर किससे मार्ग छोड़ने को कह रहे हैं ? शरीर से या आत्मा से ? यदि मैं आत्मा हूँ तो अपवित्र होने का प्रश्न ही नहीं और यदि मुझे शरीर मानकर चला जा रहा है, तो नश्वर शरीर क्या पवित्र और क्या अपवित्र ?’ शंकर विस्मयबोध से उस शूद्र को निहार रहे थे। उसने शंकर के ही तर्कों से उन्हें कटघरे में ला खड़ा किया था।इतिहास साक्षी है कि शंकर उस शूद्र के सम्मुख झुके उसे प्रणाम किया और उसे भी अपना एक गुरु स्वीकारते हुए अपने पथ पर आगे प्रशस्त हो गए।
आदि शंकराचार्य के चरणों में बड़े -बड़े विद्वानों के सर जा झुके। उनकी वाणी को कोई काट नहीं सका। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को एक सूत्र में पिरोये रखने के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने समय में प्रचलित समस्त अवैदिक मतों का मर्दन किया। उन्होंने वास्तविक और सत्य वैदिक धर्म के उज्जवल स्वरुप को मंडित किया। तांत्रिक उपासना के क्षेत्र में आदि शंकर ने जिस पद्दति का आविर्भाव किया वह अद्वितीय है। उनके द्वारा भाषित ग्रंथों में तंत्र को अंतरंग वास्तु समझकर इसका उल्लेख नहीं किया गया है अपितु भगवती त्रिपुरसुंदरी के अनन्य उपासक बनकर उन्होंने श्री विद्द्या के सम्बन्ध में अत्यंत मूलयवान और प्रभावी सूत्रों की प्रतिष्ठा की है।उनका अप्रितम ग्रन्थ ‘सौंदर्य लहरी ‘ इसका प्रमाण है। ‘भज गोविन्दम्’, ‘विवेक चूड़ामणि’,’आनंद लहरी’, ‘भवान्यष्टकम्”उपदेशसाहस्त्री’,’सतश्लोकी’, उनकी विश्व प्रसिद्द कृतियाँ हैं।आदि शंकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका जीवनवृत्त अनेक भावों का सुसंचय है। वे दार्शनिक भी थे ,कवि भी ,ज्ञानी भी और संत वैरागी भी। उपदेष्टा के रूप में उनका कोई मुकाबला नहीं, तो उन जैसा कोई समाज सुधारक भी नहीं। उन्होंने अखंड भारत का भ्रमण किया। गाँव-गाँव, गली-गली धर्म की अलख जगाई। कैलाश मानसरोवर यात्रा के उपरान्त मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में शंकर शिवस्वरूप हो गए। बूँद सागर में जा मिली। उनके जन्मोत्सव पर आज हमारा उन्हें कृतज्ञता पूर्ण स्मरण।

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