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जन्मोत्सव – 5 सितम्बर पर विशेष संसार के प्रथम शिक्षक थे श्री कृष्ण

SHABDARCHAN
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समग्र विश्व की चेतना ने पूरब से उदित ज्ञान के सूर्योदय में ही अपने अस्तित्व की उड़ानें भरी हैं। सदा-सर्वदा जब भी ज्ञान के प्रारब्ध की चर्चा होगी योगीराज श्री कृष्ण स्वयमेव सार्थक हो जायेंगे। उनकी देशना की गंगोत्री में सदियों से मानवता अपनी संतुष्टि की डुबकी लगा रही है।उनके मुखारविंद से झरी ‘गीता’ अकेली ऐसी कालजयी पवित्र पुस्तक है, जिसे दुनिया के सभी संप्रदाय, सभी धर्म बराबर का सम्मान प्रदान करते हैं।त्रेता युग तक चलित गुरु परंपरा में श्री कृष्ण पहले ऐसे विचारक थे जिन्होंने सच्चे अर्थों में शिक्षक परंपरा का श्री गणेश किया। उन्होंने वास्तविक शिक्षा के नए मानदंड निर्मित किये। अभूतपूर्व सिद्धांतों और नियमों का प्रतिपादन किया। श्री कृष्ण के ज्ञान के आलोक में सदियों ने उपलब्धियों के नित-नूतन अध्यायों का सृजन किया। भावों और विचारों के क्षितिज पर उनकी प्रेरणाओं के जो इन्द्रधनुष खिंचे; उनका आकर्षण आज भी यथावत है। हज़ारों वर्ष ढल गए पर श्री कृष्ण के ज्ञान का सूर्य दैदीप्यमान है। उनकी चेतना के शिखरों से आज भी समाधानों की नयी रश्मियाँ विस्तीर्ण हो रही हैं।
सच्चा शिक्षक वही है जिसकी शिक्षाएं जीवन रूपांतरण का कीमियां बन जाएँ। वह जो भी करे सभी को भाये। उसकी वाणी वरदान हो और आचरण एक ऐसी पथ ज्योति जिसका वरण हर कोई करना चाहे। उज्जैन में अपने गुरु ऋषि संदीपनी के आश्रम में रहते हुए, जो भी श्री कृष्ण और उनके सहोदर बलराम ने सीखा उसका जीवन भर अनुपालन किया। गुरु जीवन मूल्यों के सार्थक प्रयोग का उपदेष्टा है जबकि शिक्षक जीवन की सार्थकता का मूल स्रोत। अनुत्तरित प्रश्नों से व्याकुल मानवीय मन के लिए शांति का पनघट है सच्चा शिक्षक। आज जब समाज के सभी पदों पर नियुक्त व्यक्तियों की गरिमा का क्षरण दिखाई देता है तब शिक्षा और शिक्षक भी इससे अछूते नहीं हैं।अधूरे शिक्षक रिक्त और खंडित व्यक्तित्व का निर्माण कर रहे हैं। तभी तो समाज में इतनी किंकर्तव्यविमूढ़ता है।
शिक्षक की दृष्टि बड़ी पैनी होती है वह अपने शिष्य को पलक झपकते ही पहचानने की क्षमता रखता है। महाभारत युद्ध से पूर्व जब अर्जुन और दुर्योधन दोनों अपने-अपने लिए श्री कृष्ण से सहायता मांगने जाते हैं तब मानों पहली ही नज़र में इस युद्ध के परिणाम का निर्णय हो जाता है। अत्यंत आदर भाव से अर्जुन उस समय निद्रा में लीन श्री कृष्ण के चरणों की ओर बैठता है जबकि अपने राजपाट की अकड़ और अहंकार में डूबा दुर्योधन उनके सिरहाने की तरफ बैठता है। स्वाभाविक रूप से जब भी हम सोकर उठते हैं हमारी पहली नज़र अपने पाँयतों की तरफ ही जाती है अतः उन्हें सबसे पहले अर्जुन ही दिखाई देता है। अतः पहली मांग का अधिकार भी स्वतः ही अर्जुन को मिल जाता है। आप जानते ही हैं कि अर्जुन श्री कृष्ण को और दुर्योधन उनकी सेना को मांग लेता है। महाभारत के युद्ध में पांडवों और कौरवों का सैन्य अनुपात 7 :11 था। बावजूद इसके यह श्री कृष्ण की शिक्षाओं और मार्गदर्शन का ही परिणाम था कि विजय पांडवों की हुई।
श्री कृष्ण ने उपदेश से अधिक व्यवहार के प्रमाण को बल दिया। उन्होंने लोभ और संचय की प्रवृत्ति पर चोट करते हुए अपरिग्रह की प्रेरणा दी। उनका मानना था कि आवश्यकता से अधिक का संग्रह उचित नहीं तभी तो उन्होंने बचपन में ही ग्वालों की टोली के नेता बनकर उन घरों से मक्खन चुराना शुरू किया जो संग्रह में विश्वास रखते थे। वास्तविक मायनों में सच्चा शिक्षक पहले खुद करके सिखाता है श्री कृष्ण इसके भी प्रमाण सिद्ध हुए। बाल ग्वालों के दल की गेंद खेलते समय जब यमुना में जा गिरी तब वे स्वयं सबको पीछे करते हुए यमुना में उतरे और साहसपूर्वक कालिया नाग का मर्दन करते हुए सकुशल अपने साथियों के मध्य लौट भी आये। बुराई चाहे घर में हो या समाज में एक सच्चे शिक्षक का कर्तव्य है कि वह उसके उन्मूलन के लिए एक मिसाल प्रस्तुत करे, श्री कृष्ण यहाँ भी प्रथम आये। जब उनके सगे मामा कंस के अत्याचारों से जनता हाहाकार कर उठी; तब उन्होंने किसी भी बात की परवाह किये बिना उसका वध करना ही उचित समझा।ज़रूरत से ज़्यादा ज़ुल्म सहना भी पाप ही है अपनी इस शिक्षा को चरितार्थ करते हुए उन्होंने शिशुपाल को 100 बार माफ़ किया लेकिन उसके नहीं सुधरने पर फिर उसे मृत्यदंड देकर बुरे कृत्यों के परिणाम के प्रति समाज को चेताया भी।
कृष्ण शब्द जिस धातु से बना है उसका अंततः शाब्दिक अभिप्राय होता है -अपने आकर्षण में बांधने वाला, वे इस मामले में भी सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने जो कहा वही किया भी इससे उनके प्रति सभी के लगाव और सम्मान में अतिशय वृद्धि होती गयी। श्री कृष्ण ‘गीता’ के तीसरे अध्याय ‘कर्मयोग’ के 21 वें मंत्र में स्पष्ट करते हैं कि श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा आचरण करते हैं अन्य मनुष्य भी उनका अनुसरण करते हैं और फिर यही व्यवहार लोक में सामान्यतः अपनाया जाने लगता है। यथा –
‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।’

अतः शिक्षा जैसे पुनीत और संस्कारों की स्थापना वाले कार्यों में रत व्यक्तियों को सभी अर्थों में श्रेष्ठ होना ही चाहिए। गीता सदियों से एक सच्चे शिक्षक की भूमिका अदा करती आ रही है। यह गीता की ही विशिष्टता है कि विश्व के 100 से भी अधिक देशो की 60 से अधिक भाषाओँ में उसका अनुवाद हो चुका है।गीता के श्लोकों को सबसे अधिक उद्धृत किया जाता रहा है।यही नहीं गीता की उत्पत्ति के बाद दुनिया में जितने भी धर्मो का प्रादुर्भाव हुआ उनकी मूल देशना में गीता के ज्ञान की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए गीता का प्रसिद्द श्लोक है-
‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः
अभुय्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।’
वस्तुतः गीता की उपादेयता और प्रासंगिकता के कईं कारण हैं।यह अकेला ऐसा ग्रन्थ हैं,जो युद्ध क्षेत्र में उदित होने के बावजूद समस्त मानवीय मूल्यों से पूर्ण शिक्षाओं की पैरवी करता है।यही नहीं वैदिक युग के कालखंड में उत्पन्न हुई गीता सभी तरह की सांप्रदायिक और धार्मिक संकीर्णताओं से कोसों दूर है।यही वज़ह है कि गीता उन देशों में भी समान रूप से प्रतिष्ठित है जिन देशों के संस्कार ‘परमात्मा’ के बजाय ‘पदार्थ’ की वकालत करते हैं।देश की अदालतों में इसी गीता पर हाथ रखकर भारतीय संविधान न्याय और सत्य की उम्मीद करता है। मान्यता है कि गीता की सौगंध खाने के बाद व्यक्ति न्यायालय में असत्य वचन नहीं बोलेगा।

भारतीय अध्यात्म का विदेश में डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद गीता की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे।वह कहा करते थे- ‘यदि गीता की एक प्रति का मूल्य दस हज़ार रूपये भी होता, तो मैं उसे सारी संपत्ति बेचकर खरीदता।’ भारतीय दार्शनिकों के अलावा दुनिया के अनेक विचारक गीता की देशना से प्रभावित रहे हैं।धार्मिक और नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए कालांतर में हुए बहुत से संग्रामों की पृष्ठभूमि में गीता के संदेशों ने उर्वरक वैचारिक खाद-पानी का कार्य किया। रूस के लियो तोलस्तोय की पुस्तक ‘हम और आप” हो या मक्सिम गोर्की की ‘मेरे विश्वविद्यालय ,चीन के लाओत्से की ‘तेन ते किन’ हो या फिर जर्मनी के अडोल्फ़ हिटलर की ‘माय स्ट्रगल ‘ सभी ने गीता के सूत्रों से जीवन विजय की शिक्षाओं को आत्मसात किया है।

ये गीता और श्री कृष्ण ही हैं जिन पर दुनिया के हर विचारक ने अपनी टीकाएँ लिखनी चाही हैं। जितनी टीकाएँ गीता पर हुई हैं उतनी किसी और धार्मिक ग्रन्थ पर नहीं। आदि शंकराचार्य से लेकर महात्मा गांधी तक और रविन्द्रनाथ टैगोर और ओशो से लेकर लोकमान्य तिलक तक सभी कृष्ण की शिक्षाओं से सराबोर हैं। श्री कृष्ण की गीता जीवन संग्राम में मुक्तिपथ का हेतु है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे अपने प्रश्नों के समाधान गीता में न मिलें ! योगिराज कर्म और संयम के मध्य विराजित सूक्ष्म प्रकारों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
‘ या निशा सर्वभूतानाम तस्याम् जागृति संयमी।
यस्याम् जागृति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।’
जिस समय समस्त संसारी सुप्तावस्था में होते हैं एक संयमी उस समय भी जागृत अवस्था में रहता है। यहाँ नींद का उल्लेख एक प्रतीक स्वरूप में है वास्तविक अर्थों में श्री कृष्ण का तात्पर्य सचेतन और सक्रिय अवस्था को ही जागरण मानने से है। प्रतिवर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी आती है। हम बहुत से आयोजन करते हैं इस वर्ष जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस एक ही दिन हैं ऐसे में यदि हम संसार के पहले शिक्षक श्री कृष्ण की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सकें तो यही उनका सच्चा स्मरण होगा और यही सच्ची स्तुति !
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