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स्वास्थ्य की संजीवनी है :शरद पूर्णिमा

SHABDARCHAN
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‘पहला सुख निरोगी काया
दूजा सुख घर में हो माया,
तीजा सुख पुत्र आज्ञाकारी
चौथा सुख कुलवंती नारी।’

भारतीय संस्कृति में जितने भी तीज त्यौहार हैं, उन सबकी वैज्ञानिक मान्यताएँ और अवधारणाएँ हैं।हमारे ऋषि -मुनियों ने जब सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना बुना, तो उसमें स्वास्थ्य सम्बन्धी मूल्यों को सर्वोच्च मान्यता प्रदान की। ऊपर -ऊपर से देखने पर इसका पता नहीं चल पाता लेकिन गहराई में जाने पर हमें अपने पर्वों की वैज्ञानिक विशेषताओं का भान भली-भांति होता है।शरद पूर्णिमा के महत्त्व और विशेषताओं से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। सिर्फ इसी पूर्णिमा को चंद्रमा अपनी पूर्ण 16 कलाओं से युक्त होता है। शरद पूर्णिमा स्वास्थ्य की दृष्टि से एक ऐसी रात्रि है जब क्षितिज से अमृत की रश्मियाँ संजीवनी बनकर बरसती हैं।
भारत की गौरव और गरिमा के प्रथम शब्द ‘ग’ का गहन सम्बन्ध यहाँ के ‘शब्दत्रय’ से है जिसमें ‘गाय’,’गँगा’और ‘गीता’ का स्थान निहित है। गाय हमारी कृषि प्रधान भारतीय अर्थ व्यवस्था का केंद्र बिंदु बनी रही है। गँगा हमें तन के मैल से मुक्त कर आरोग्य के पथ पर आरूढ़ करती है और गीता हमारी समस्त बौद्धिक उर्वरा का प्राण तत्त्व है। मानसिक आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से विकसित समाज ही किसी स्वस्थ राष्ट्र का आधार हो सकता है, यह बात हमारे नीति नियंताओं ने सदियों पूर्व ही अच्छी तरह से समझ ली थी। तभी तो स्वास्थ्य सम्बन्धी उपक्रमों को हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं से इस प्रकार सम्बद्ध कर दिया गया कि चाहे अनचाहे हम उनमें शामिल हो सकें और निहित लाभ हमारे जीवन चर्या के अभिन्न अंग बनते चले जाएँ।
अंग्रेजी भाषा का शब्द ‘मून’ संस्कृत भाषा के ‘मन’ से बना है। मन का हमारे चारों पुरुषार्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्योतिष विज्ञान में मन का स्वामी चन्द्रमा को माना गया है। चन्द्रमा को भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित करने का अभिप्रायः भी यही है कि मन सर्वोपरि है। कहते हैं न ‘मन जीता तो जग जीता’। यदि मन शुद्ध है तो आपका जीवन निश्चित ही शिवमय (कल्याणकारी) होगा। संसार में जो कुछ भी शिवमय है, वह स्वयं सत्यमय है और जो भी सत्यमय है वही तो सुन्दरतम है। सत्यं -शिवम -सुंदरम।
चन्द्रमा की गतिविधियों का हमारे मन और शरीर से गहरा और सीधा सम्बन्ध है। मन की सभी वृत्तियों को चन्द्रमा नियंत्रित करता है। पश्चिम के देशों में इसपर अनेक शोध कार्य चल रहे हैं।वैज्ञानिक मान्यताएं हैं कि जो व्यक्ति पागल होते हैं उनमें चन्द्रमा एक प्रमुख कारक के रूप में उपस्थित होता है। ज्योतिष विज्ञान की गहरी से गहरी खोजें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि चन्द्रमा यदि दोषयुक्त है तो व्यक्ति का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है। कैलिफोर्निया विश्वविद्द्यालय के शोधार्थियों ने जेल में बंद कुछ मानसिक रोगियों पर जो अनुसन्धान किये हैं उनके नतीजे चौंकाने वाले हैं। उनका कहना है महीने में दो बार उन कैदियों की गतिविधियों में अभूतपूर्व बदलाव देखने में आता है उनमे से कुछ अत्यधिक उग्र और उत्पाती हो जाते हैं जबकि कुछ एकदम शांत और शालीन। जब इन तिथियों को भारतीय पंचांग से मिलाया गया, तो ये तिथियाँ अमावस्या और पूर्णिमा या उनसे एक दो दिन आगे पीछे की तिथियाँ थी। वैज्ञानिक इस बात पर भी सहमत होते दिखे कि उन मानसिक रोगियों के व्यवहार परिवर्तनों में कहीं न कहीं चन्द्रमा की गतियों का कुछ तारतम्य अवश्य है।
विशालतम समुद्र में ज्वारभाटा चन्द्रमा के कारण ही आता है। चन्द्रमा जब इतने विशालकाय सागर के अस्तित्व को प्रभावित कर सकता है, तब एक मनुष्य का उसके सम्मुख क्या स्थान है। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि हमारे शरीर में लगभग 85 प्रतिशत जल है और इस जल में नमक की मात्रा कमोबेश उतनी ही है, जितनी समुद्र के जल के खारेपन में होती है। तभी तो पसीना हमें खारा लगता है। समुद्र में रहने वाले अधिकांश जलीय जंतुओं का चन्द्रमा से एक खास सम्बन्ध है। अनेक प्रजातियों की मछलियाँ चन्द्रमा की गति के मुताबिक अपने जीवन चक्र को संयोजित करती हैं। चन्द्रमा की कलाओं से वे यह सुनिश्चित करती हैं कि उन्हें अपने अंडें कहाँ और कब देने हैं। सिर्फ मछलियाँ ही नहीं महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोन्स और व्यवहार के परिवर्तनों में भी चन्द्रमा का विशेष हस्तक्षेप है। स्त्रियों का मासिक चक्र भी चन्द्रमा की गतियों से ही निर्धारित होता है। यदि मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति के जीवन में चन्द्रमा और अमावस्या इन दो तिथियों पर विशेष ध्यान देकर उसके व्यवहार को आँका जा सके,तो विज्ञान कहता है ऐसे मानसिक रोगियों को सदा के लिए ठीक किया जा सकता है।
चन्द्रमा का प्रायः सभी धर्मों में समान आदर है। उसकी गहरी से गहरी वज़हों में यह बात छिपी है कि धर्मों के अधिष्ठाता इस बात से भली प्रकार विज्ञ थे कि चन्द्रमा को साध लिया तो सब सध जायेगा। भारतीय पुरातन परम्पराओं में चन्द्रमा के इर्द -गिर्द ही सभी पर्वों का प्रभाव अस्तित्वमान रहा है। श्री राम को 12 कलाओं और योगिराज श्री कृष्ण को 16 कलाओं में दक्ष की संज्ञा दी जाती है। श्री कृष्ण की ये 16 कलाएं वस्तुतः चन्द्रमा की ही 16 पूर्ण अवस्थाओं को उपलब्ध हो जाना है। जब पूरा चाँद क्षितिज पर दैदीप्यमान होता है तब उसकी छटा देखने लायक होती है। श्री कृष्ण एक ऐसे अवतार जिन्होंने मन के सभी आयामों पर विजय प्राप्त कर ली। यही तो 16 कलाओं में पूर्ण होना हुआ और क्या ? अपनी इन 16 कलाओं अर्थात 16 दिनों के सत्त्व से पूरित चन्द्रमा जब एक नक्षत्र विशेष में आकाश पर उदित होता है वह विशेष तिथि है -शरद पूर्णिमा !
मान्यता है कि शरद पूर्णिमा को ही वृन्दावन के वंशी वटों में श्री कृष्ण महारास रचाते हैं। अपने संगी साथियों और गोपियों के साथ शरद पूर्णिमा को ही सबसे पहले श्री कृष्ण ने यहाँ रासलीला रचाई थी। इसी लिए इस तिथि को ‘रास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। कवियों के ग्रन्थ इस रात्रि के चाँद की गौरव गरिमा से भरे पड़े हैं। इस दिन के चन्द्रमा की चांदनी महा सुख और सौभाग्य को देने वाली है ऐसी मान्यताएं हैं। प्रसंग आता है कि भगवान विष्णु के अवतार समझे जाने वाले श्री कृष्ण को खोजते-खोजते उनकी भार्या महालक्ष्मी इसी रात्रि को वंशी वन पंहुची थी। यह भी कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा की चन्द्र रश्मियों के सानिध्य में रात्रि पर्यन्त जागकर जो भी व्यक्ति लक्ष्मी सूक्त का पाठ करता है उसके जीवन में कभी भी धन -धान्य का अभाव नहीं रहता।कथन है कि इस रात्रि आकाश से अमृत कणों की वर्षा होती है। ब्रह्म मुहूर्त में चन्द्रमा की किरणों के बीच जब गंगा में स्नान किया जाता है, तब हमारे शरीर में विशेष रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। हमें अनेक रोगों से लड़ने की शक्ति मिलती है और हमारा मन मष्तिष्क अनेक क्षमताओं को विकसित करता है। महाभारत के भीषण संग्राम के पश्चात व्यथित युधिष्ठर ने श्री कृष्ण के परामर्श पर द्रौपदी और चारों भाईयों समेत शरद पूर्णिमा को गंगा स्नान किया था।
शरद पूर्णिमा को ‘कोजागरी पूर्णिमा’ ‘कुमार पूर्णिमा’,’नवान्न पूर्णिमा’ के नामों से भी सम्बोधित किया जाता है। यह भारतीय पंचांग के आश्विन मास की पूर्णिमा है। अनेक प्रांतों में कोजागरी व्रत रखने की भी परंपरा है। यह व्रत प्रदोष और निशीथ दोनों में होने वाली व्याप्त पूर्णिमा के दिन किया जाता है। यदि पहले दिन निशीथ व्यापिनी हो और दूसरे दिन प्रदोष व्यापिनी न हो तो पहले ही दिन व्रत का विधान है।
यथा –
‘आश्विन पौर्णमास्यम् कोजागर व्रतम्।
सा पूर्वत्रैव निशीथव्याप्तौ पूर्वा।।’
इस प्रकार इस वर्ष यह व्रत 26 अक्टूबर सोमवार को रहेगा जबकि स्न्नान दान की पूर्णिमा 27 अक्टूबर की रहेगी।
मान्यता है कि यदि सोमवार को रात्रि काल पूर्णिमा रहे तो उस रात्रि आकाश से सोमरस की वर्षा होती है। इसी सोमरस के पान के वर्णनों से देवी -देवताओं के वृतांत आपूरित हैं। कहा गया है कि यह सोमरस जो पान करता है वह कभी वृद्ध नहीं होता। यहाँ वृद्ध होने का भावार्थ मन के वेगों से हैं और सोमरस कोई शराब नहीं है, जो आकाश से बरसती हो ! उस दिन सोम यानि चन्द्रमा से बिखरने वाली किरणों का जो सेवन करता है वह पूर्ण रूपेण स्वस्थ रहता है। जो पूर्ण रूपेण स्वस्थ है वह आयु से क्षीण होने पर भी युवा ही हुआ न। मेरे देखे यही इसका वास्तविक निहितार्थ है।
मान्यता है कि गाय के दूध से किसमिस और केसर डालकर चावल मिश्रित खीर बनाकर शाम को चंद्रोदय के समय बाहर खुले में रखने से उसमें पुष्टिकारक औषधीय गुणों का समावेश हो जाता है जब अगले दिन प्रातः काल उसका सेवन करते हैं, तो वह हमारे आरोग्य के दृष्टिकोण से अत्यंत लाभकारी हो जाती है। यह खीर यदि मिटटी की हंडिया में रखी जाये,और प्रातः बच्चे उसका सेवन करें ,तो छोटे बच्चों के मानसिक विकास में अतिशय योगदान करती है ;ऐसा आयुर्वेद में उल्लेखित है। इस खीर के प्रयोग से अनेक मानसिक विकारों से बचा जा सकता है। आज भी जहाँ शहरों की प्रदूषित हवाएँ नहीं पहुंची हैं और हमारा जीवन प्रकृति के नियमों की डोर से बंधा है वहां के युवक युवतियां मानसिक रोगों और अवसादों भरे मन से कोसों दूर हैं।
‘सब कुछ ले आया इस शहर में मैं
घर की छत पर टंगा चाँद छूट गया।’
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